पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजविलास । २४७ मसंद दंद दलमलहु साहिदल। रिण हम मुख को रहे कहा आसुर अनंत बल । भंजों ऽब भूरि गिरि बज्र ज्यों चून करों इन चंड चित । तो नंदराव बलि- भद्र को अब उझटि नंषो अहित ॥ २१ ॥ (अथ रावत रतनसी चोंडाउत के बचन ) ॥ कवित्त । ज्यों अंबुधि अंचयो अगस्ति ज्यों तरणि रयनि तम । दावा ज्यौं बन द्रुम अनेक दहि दुर्ग असम सम । ज्यों बद्दल फारत वायु ज्यों इह असुरायन । महन रंभ प्रारंभ पारि पिशुननि पारायन ॥ इकलिंग ईश जो शीश पर तो ऽब कहा परवाह इन । करि प्रबल कोप रघुनंद कहि रावत चोंडाउत रतन ॥ २२ ॥ (तदनु सगताउत कुंभर गंगदास के बचन )। सगताउत रावत्त केसरी सिंह सुनंदन ॥ गरजे कर गंग सैन बध असुर निकंदन ॥ कहें सभारथ कत्थ यूथ घन यवन सँहारों । पारय ज्यों हों प्रबल म्लेच्छ कौरब दल मारों ॥ मधुसूदन ज्यों सायर मथिग हनु ज्यौं शैल समुद्धरों । गहि साहि नंद गजगाह बँधि कहा बत्त बहुते करों ॥ २३ ॥ पंचो भट महराण के, पंचो भारय भीम । पंचो मिलि किन्नो मतो, पंचो सुरगिरि सीम ॥ २४ ॥ पंचो दल सज्जे प्रबल, पंचो विश्व बिष्यात ।