पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५६

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राजविलास । सगताउत सुकर । जसवत जेत झाला प्रमुख सजे सकल सामंत भर ॥ ३०॥ दोहा। सबल एह सामंत भर, अनि उमराव अपार । सेन कुंभर जयसिंह की, करन असुर संहार ॥ ३१॥ छंद मीतिमालती। गंगगड धोंकि निसान धे करि भद्रभंभा भरहरे । झननंकि ताल कँसाल झननन द्रनन दुरबरि डवरे । सहनाइ पूरि सँपूरि सिंधुन ठनन तूर ठनंकियं । ढम- ढमकि ढोल ढम ढमं फुनि २ नफेरि भनंकियं ॥ ३२ ॥ संचले दल मुख सबर सिंधुर गात अंजन गिरि- वरा । सत्तंग भूमि लगत सुन्दर भरत गिरि ज्यों मद झरा ॥ सिंदूर तेल सुरंग शीशहिं मुत्ति माल मनोहरं । संदुरत उद्यल चोर सिरि अव सिंह मां बन श्रीभरं ३३ मुह संड दंड उद्दड मंडित तरुन तरु उनमूरते। दृढ़ दिग्ध दंत सभार शशि दुति सकल सोभ संपूरते॥ महकंत दांत कपोल मूलहिं गुज रव अलिगन भ्रमें। ठनकत घंट सुघंट कंठहिं चरन घुग्घर घमघमें ॥३४॥ सुसनद्ध बद्ध सनाह संकर तदपि षग गति पग धरे । गरजंत ज्यौं घन गुहिर जलधर भीम ऋतु भद्दव भरे ॥ सुपताक हरित सुरत्त पीतनि चिन्ह हरि रवि चंडियं । कर कनक अंकुसि धत्त धत्तह पीलवाननि संडियं ॥ ३५॥