पृष्ठ:राजविलास.djvu/२५७

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राजविलास।

चर चलत अग्गरु पच्छ चरषी पून तदपि घरे परे । बहु विरद बंके बंदि बोले भूमि तब इक पय भरे ॥ कर अग्ग करिनी केक करिबर शुद्ध चित तब संचरे । पर दलनि पेलन पील दलपति बिकट काटनि जे अरे ॥ ३६॥ ढलकंत ढाल सवास ढंकित डोल बर किन पर कसें । गुरु नारि गोर जंबूर किन पर लोह काष्टक किन लसें ॥ किन पिहि नद्द निसान नौबत कनक के सुभ्भर तरे । गजराज गुरु सुरराज के से स्याम घन जनु संचरे ॥ ३७॥ एराक आरब देश उतपति कासमोर कलिंग के । कांबोज कोकणि कच्छि कबिले हय उतंग सु- अंग के ॥ पय पंथ सिंध पवन पथ के तरणि रय के से तुरी ॥ बहु बिबिधि रंग सुरंग मजनसु फेंग वर करते पुरी ॥ ३८ ॥ हसिले हरडे हरी किरडे रंग लाषिय लीलड़े ॥ रोझीय सिंहलि भेर अँब रस बोर मसकी दूग बड़े ॥ संजाब तुरजे ताजि तुरकी किलकिले अरु कातिले । सुकुमेत गंगाजल किहाडे गरुड गुलरँग गुण निले ३८ जिमिगति नग युत स्वर्ण साकति बेनि बर षंघे बनी । सुजवादि मंडि रु पाट पचरंग गुयी मधि मौक्तिक मनी ॥ फबि निविधि फुदावली रेसम