पृष्ठ:राजविलास.djvu/२७

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राजबिलास। निरखि वल्हिका नाथ निज, दिय पुत्री वरदान । राजन बरि भाये रमनि, सुन्दर सची समान ॥३०॥ सोलंषिनी सु लच्छिनी, राजन सरिस रमंत । अन्य वरस के अंतरे, गरभ र्यो गुनवंत ॥ ३१ ॥ गरभ बालही पितृ गृह, आई अति उच्छाह । पेम मिली माता पिता, बन्धु कनिष्ट सु व्याह ३२॥ बंधव बरि आयौ सुबधु, रति सम सुन्दर रंग । धाम आपके धनवती, चलन कियो चित चंग ॥३३॥ मात पिता बंधुनि मिली, यहै कीन अरदास । रहै। सुबाई रंग रस, चतुरंगौ चौमास ॥ ३४ ॥ मात पिता बच मानिक, पावस बरजि पयान । रही तहां राजन रवनि, नौसर पावनि जानि ॥३॥ कवित्त । गृहादित्य नृप गरुन्न भौम भारय रिपु भंजन। काल राति किय काल गाढ़ गिरिवर गय गंजन ॥ हुन्न हा हा रव हूक कहर नृप त्रिय सत किन्नौ । संसकार करि स्नान दान जल अंजलि दिन्नौ ॥ संथप्पि सुता.सुत रद्र सिरि नव नरपति परधान नव। ऐसे सुपुत विनु अच्छि इल बीयौ आई भुजै विभव ३६॥

-सुनिय बत्त संग्राम सीह परिवार समेतह ।

धसकि परी धनवती अवनि मुरझाइ अचेतह ॥ सखि- यनि करी सचेत धवल उट्ठी धीरज धरि। सती संग ।