पृष्ठ:राजविलास.djvu/२६

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राजबिलास। धरा रक्षिपाल धर्म धुरं ॥ हय गय सुयान पायक हसम अंते डर परिवार अति । नन नंदन तेहि नरिंद नैं गाढ़ी पूरब कर्म गति ॥ २४ ॥ ___ सकल देव देवंत क्षितिय पूजत दरस षट। देत नवग्रह दान हच्छि हय हेम हीर पट ॥ तीरथ ते षज तंत्र करत इक अंग जकद्रह । भारतिवंत अंतीव रचै नहि चित्त सुरद्रह ॥ सावंत इक्क निशि सुष सयन पत्त सुपन पच्छिम पुहर । शशि भाल शीश गंगा सरित उद्यल वृष आसन सु हर ॥ २५ ॥ भनहि ईश सुनि भूप राज रघुवंशी राजन । सुत व्हैहें तुभ सकल सबल जसु बषत सु साजन ॥ परि तसु आनन पदम नयन निज तुम न निरक्खहु । लहियै जो कलु लेख रंच आरति जिन रक्खहु ॥ नारी सुनंद काके निलय राज रिद्धि तनु इत रहयः । निज कृत बसत्य चल्लं नृपति काम दहन सच्ची कहय ॥२६॥ दोहा। निरखि सुपन जग्ग्यौ नृपति, ईश बचन उर धारि। आन्यौ चित संतोष अति, प्रारति सब अपहारि २७॥ काहू से ही सुपन कथ, नकही आप नरिंद। दिन दिन धन धन दिहिये, नाहर प्रति आनंद२८॥ मेद पाट महिमंडले, नागद्रहापुर नाम । सोलंषी संग्राम सी, धनवति सुता सुधाम ॥ २ ॥