पृष्ठ:राजविलास.djvu/६९

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राजबिलास। दाहा। कन्या दो तिन भूप के, सुंदर तनु सु कमाल । वर प्रार्पति अवलोकि वर, मंत्रि बोलि महिपाल ३॥ कहै सुमंत्री मंत कहि, वर प्रापति भइ बाल । सबर सगप्पन अटक रहु, बर घर रिद्धि विशाल॥४॥ सगपन कीनौ सबर सौं, वेगि होइ वरदाइ । समर सीह रावर सजे, प्रथु दिल्लीश सहाइ ॥ ५ ॥ तिन कारन हो मंत्री तुम, सगपन सबर संभारि । कन्या दीजै हरषि करि, सुजस लहै संसारि ॥६॥ छंद भुजंगी। सुनौ साइ मंत्री कहै मंत सच्च, इलानाह जाई जिनं वंस उच्च। धुलं जास राजं धरै क्षत्रि धर्म, सबै हिंदु अंगार सारं सु शर्म ॥७॥ उथप्पै दलं बद्दलं आसुरानं, पनं पावनं नीति थप्पै पुरानं । अभंगं अभीतं उतंगं अजेजं, असंकं सु कंकं परीणाम हेजं ॥८॥ अनेक अभेद अनोपं अठिल्ल, अरोगं सु भागं परीणाम पिल्लं । अनेकं बलं बुद्धि विग्यान अंगं, जयं जैत हत्थं महा जोध जंगं ॥८॥ ___ सरं मवेधी वरं सूर वीरं, धक धींग धुज्ज अरी व्है अधीरं । करे के विकालं कृपानं करालं, पठावै पिशूनं जनं जेपयालं ॥ प्रभा केटि रूपं प्रचडं