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पृष्ठ:राजविलास.djvu/८८

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राजबिलासा पाडल बहू प्रसंस, वेतस विदाम बंस ॥ १२ ॥ बटबोर सिरिबोर, जानिये सुवर्ण जोर । सुपारी सरोस सेव, सिंदूरी सदा सुटेव ॥ १३ ॥ संगर सरस दल, सुरुझना सदाफल । बाग में गिनै विवेक, इत्यादि तरु अनेक ॥ १४ ॥ करत विहंग केल, मिथुन मिथुन मेल । मैन सारि सुआ मोर, चंचल बहू चकोर ॥ १५ ॥ सुनिये सबद्द सारु, हरष कुही हजारु । कोकिल करें कुहक, मंजरी भर्षे नहक्क ॥ १६ ॥ काबरि कपात कोरि, तूती फरु लेत तोरि । लावारु तीतर लख, चंचु चारु मेवा चख ॥ १७ ॥ बटेर बाज बखोन, सग गरुड़ सिंचान । जोराबर जहां जन्त, अश्व ते न आवे अन्त ॥१८॥ महल तहां महन्त, कनक कलस कन्त । रायांगन बहु रूप, भले भले बैठे भूप ॥ १८ ॥ चह बचा पिखे चारु, छुट्टत नल हजारु । दतीनिके सुडादंड, उदक धारा अखंड ॥ २० ॥ बंगले बने विवेक, पाछी कोरनी अनेक । सजल तहां सुसर, कमल कनक झर ॥ २१ ॥ रच्यौ राणा सीह, अनम सदा अभीह । सरब रितु बिलास, बगीचा सदा सुबास ॥ २२ ॥ कुंभर पनै सुकेलि, बहू बिधि वृक्ष बेलि ।