पृष्ठ:राजविलास.djvu/८७

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८०. राजबिलास । छंद बिद्युन्माला। विविधि सघन वृक्ष, लुब अब केउ लक्ष । बाग सों बहु विशाल, रितुषट हूं रसाल ॥२॥ जु जुई सकल जाति, वेलि गुल्ल के विभाति । भरित अठारह भार, परधि बन्यौ पुकार ॥ ३ ॥ सारनी बहत सार; वृक्ष वृक्ष मूलवार ।। गिनिये सदा गंभीर, सुरभि चले समीर ॥ ४ ॥ अंबर बिलगि अंब, करनी बहु कदंब । श्रांबिली तरू असोक, य? सु अज्ञान थोक ॥ ५ ॥ आवरी अगछि मैंन, चंपकइ दोष चैन। अति अखरोट अखि, चारू चार जीह चखि ॥ ६ ॥ कटल बढल कुंद, मालती रु मचकुंद । करना कनेर केलि, राइनि सु राइवेलि ॥ ७ ॥ केतकी रु कचनार, केवरा प्रमोद कार।। षारिक पिंड षजूर, भाषिये अँगर भूरि ॥८॥ गिनती कहा गुलाब, जंभीरि जुही जबाब । जासूल जंबू सुजाइ, नारंगी निबो निन्याइ ॥ ८॥ ज्यांजा तूत नालिकेर, गुलतररा गिरि मेर । चंदन महक्क चारु, दारिम सु देवदारु ॥ १० ॥ तजरु तारु तमाल, मोगरा मधुप माल । दमन पतंग दाष, पिसता यूराक पाख ॥ ११ ॥ फबत तरू फरास, पारस पीपर पास