पृष्ठ:राजविलास.djvu/९२

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राजबिलाम । इला इन्द तूहीं दलै आसुरानं, करें बज्र रूपं बिराजै कृपानं । तुही हिन्दुनां भान अरि तेज हारी मधुसूदनं तुहि दरसे मुरारी ॥ २५॥ तुही चारु मुखं मना पूर्ण चन्द, अवै अमृतं बैन लहरी समुद्द। तुही नाग नच्छे तुही देत नागं, तुही पुष्करं तित्य तूही प्रयागं ॥ २६ ॥ रज रूप 'तुहीं जगन्नाथ राय, सदाचार रक्खें सु भृत्य सहायं । तुहीं गङ्ग गोदावरी तिच्छ गाजै, तुही कीन केदार कालंकि काजै ॥ २७ ॥ धरा मध्य तुही बियौ मानधाता, तुहीं छत्र धारी बहू भूमि त्राता । तुहीं काशिका बिबुध जन पाल कहहिये, सदा सैलराजां सिरै तंस लहिये ॥२८॥ ___ तुही द्वारिकानाथ निज नैन दिछौ, मनौ अमृत बरसयौ मेघ मिट्ठो। तुही कंस हर्ता कह्यौ शृष्टि कर्ता, भटौ कोटि सेवै पदं भूमि भर्ता ॥ २॥ तुही जोग माया महा जग जित, मधू शुभ निशुभ महिशेष हत्त । तुही ज्यौति ज्वालामुखी रूप जागें, मही छंडि तो अग्ग खल जूह भागें ॥३०॥ जिते बिरुद घारंति जालंधरानी, कही देव तैसी तुम्हारी कहानी ।' तुही कंटक मेटने कालकूट, तुही अप्पई हेम माया अटूट ॥ ३१ ॥