पृष्ठ:राजविलास.djvu/९३

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राजबिलास। तुही बिश्खनेता तुही कल्पवृक्षं, तुही पारस पौरसं ज्यौं प्रत्यक्षं । तुही बीर धीरं तुही चित्र बेली, करें तं सुषल पंड रनरङ्ग केली ॥ ३२ ॥ महादान अप्पैं तुही मेघ माला, सुदै हच्छि हेमं दुरमा टुशाला । तुहीं नाथ सुर रत्त तूही निधानं, तुही सर्व रस कुंपिका के समानं ॥ ३३ ॥ सदातं रधूराण श्रीराज सीहं, अजेजे अमी अभंगं अबीहं । लिये तंसु भुज अप्पने हिन्दु लाजं, रसा एक तूही सु राजाधिराजं ॥ ३४ ॥ ___तुही धर्म राजा धरा धर्म धारै, तुही आपदा खंडि के के उधारे । निवेरे बहू भांति तं हद्द न्यावो, यहूं शंकरै लख लखों पसावो ॥ ३५॥ तुही ईह को वृन्द पूरन्त आसा, तुही अक्खई दान चिते उल्हासा । लसें साइ तो राज लीला हजार, कहो कोन लोपै तुम्हारौ सुकारं ॥ ३६ ॥ ____ भरै दंड तुम अग्ग भारी भुवाला, बरं बारण बाजि वृन्दं विसाला । तुही कामिनी वल्लहं रूप कामं, नज निद्धि पावै लियै तं सुनामं ॥ ३७ । निपावन्त देवालये तं नवीने, पड़े वेद तो अग्ग ब्रह्मा प्रवीनैं । तुही एक ‘दातार पुहवीं अनूपा, रसा रखना राजतं राज रूपा ॥ ३८ ॥