पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१२७

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छठा दृश्य (स्थान-उदयपुर । सोलंकी दखपत के महल का प्रान्त भाग। रत्नसिंह और उसकी भावी पत्नी सौभाग्यसुन्दरी। समय-सन्ध्याकाल।) सौभाग्यसुन्दरी-आपकी जय हो ! जाइये। रत्नसिंह-एक दम बिदा, कुमारी ! अभी हमारे मिलन की ऊषा का उदय भी नहीं हुआ और बिदा की घड़ी श्रा गई। । सौभाग्यसुन्दरी-यही तो राजपूती जीवन है। आप विजयी होकर शीघ्र लौटिये। रत्नसिंह -(हंसकर) इसकी बहुत कम आशा है। हमारी शक्ति बहुत कम है और शत्रु अत्यन्त प्रबल है। फिर हमारे मिर पर अत्यन्त गुरुतर भार है। सौभाग्यसुन्दरी-श्राप वीर हैं। आपको भय क्या है। रत्नसिंह-कुछ नहीं, कुमारी! मैं परीक्षा में उत्तीर्ण होऊँगा। सौभाग्यसुन्दरी-कैसी परीक्षा ? रत्नसिंह-भूल गई, तुम मेरी वरता का प्रत्यक्ष प्रमाण चाहती हो सौभाग्यसुन्दरी-बह मैं पा चुकी। रत्नसिंह-कैसे? सौभाग्यसुन्दरी-आपने यह कठिन बीड़ा उठाया, इसी से। रत्नसिंह-इससे क्या ? विजय कर सो बात ।