पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

1 दश्य] तीसरा अंक १११ राणा तुम्हारा साहस और सत्यव्रत धन्य है। परन्तु वीर ! मैं तुम्हें ऐसे खतरे का काम सौंपते संकोच करता हूँ। रत्नसिंह-तब मैं अभी यहीं अपना सिर अर्पण करूँगा महा- राज ! यह मेरा वीर व्रत है। राणा-अच्छी बात है। तुम्हारा वीर व्रत अटल रहे। आओ मैं तुम्हें समस्त मेवाड़ी सैन्य का सेनापति अभिषिक्त करता हूँ। (अभिषेक की सामग्री आती है। राणा रत्नसिंह को सेनापति का पद देकर अपनी तलवार उसकी कमर में बाँधते हैं। सब धन्य धन्य कहते हैं।) राणा-बस ! अब समय कम और कार्य बहुत है। कल प्रातः काल ही एक प्रहर रात्रि रहे हमारा कूच होगा। कुमार जयसिंह और भीमसिंह उदयपुर की रखवाली करेंगे। सोलंकी दलपत और माला सुलतानसिंह रत्नसिंह के साथ मेवाड़ी सैन्य के साथ रहेंगे। राव केसरीसिंह और राठौर जोधासिंह हमारे साथ चलेंगे। जाओ ब्राह्मण, कुमारी को सन्देश दो। दीवान जी ! ब्राह्मण देवता को यथेष्ट दान मान से सम्मानित करके सुरक्षा के साथ विदा करो। (पर्दा बदलता है।)