पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१६२

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दृश्य तीसरा अंक १४७ चारुमती-(रोती हुई )तू क्यों उन से बकवाद करती है, (हाथ जोड़ कर) महाराज, मुझ अल्पमति को क्षमा करें । आप वापस मेवाड़ लौट जायें। राजसिंह-और तुम ? तुम मेरी शरणागत हो। चारुमती-आप से अधिक समर्थ रक्षक मुझे मिल गया है महाराज। राजसिंह-अधिक समर्थ रक्षक ? वह क्या ? चारुमती-विष, एक नगण्य बालिका के लिये वीरवर किसी संकट में पड़े, यह मैं नहीं चाहती। राजसिंह-फिर हमें बुलाया क्यों था ? चारुमती-कह तो चुकी, वह नादानी थी। राजसिंह-अब यह नहीं हो सकता, तुम्हें मेवाड़ चलना होगा। उसके बाद तुम्हारी इच्छा होगी" चारुमती-मैं यहीं प्राण त्यागूंगी। निर्मल-महाराज, क्या कुलवती स्त्रियाँ पति के अलावा और किसी के साथ पिता गृह त्यागती हैं ? चारुमती-(प्रणाम करके ) यह तुच्छ राजकन्या शायद महा- महिम राणा के रणवास के योग्य नहीं। निर्मल-महाराज, यह समय बातचीत में खोने का नहीं है। (आगे बढ़कर राणा के दुपट्टे से चारुमती की चुनरी की गॉठ बाँध देती है। सखियाँ गाने लगती हैं।)