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पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१६३

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राजसिंह [दूसरा राणा-( ललकार कर) यह मेवाड़ का राणा राजसिंह रूपनगर की कन्या चारुमती को हरण करता है, जिसे रोकना हो रोक ले (कुमारी से ) चलो राजकुमारी ! चारुमती-(निर्मला से लिपट कर ) सखी, स्त्री होना ही काफी दुर्भाग्य है। फिर उस पर राजपूत कन्या । ( गेती है) निर्मल-(रोती हुई ) जाओ सखी, मैं शीघ्र मिलूंगी। (हस कर) मैं कहती थी न, सुहाग का सिंगार। (तलवार लिये रामसिंह और कई साथी आते हैं ) रामसिंह-मार दो-पकड़ लो (आगे बढकर) कौन हो तुम, चोर । पकड़ो इन्हें। राजसिंह- मैं उदयपुर का राणा राजसिंह हूँ, तुम कौन हो। रामसिंह--(अकचका कर ) तुम 'आप-राना राजसिंह- तुम 'आप यहाँ कैसे? राजसिंह-तुम कौन हो? रामसिंह-एँ ! मैं-हाँ, मैं रामसिंह-नहीं, रूपनगर का राजा हूँ। हाँ, आप मेरे महल में कैसे घुस आए ? राजसिंह-(हँसकर ) तुम्हारी बहन को हरण करने । (तलवार सूत कर) वार करो पहले। समसिंह (सिपाहियों से ) मारो-सब मारो (सब राणा पर टूरते हैं) दलपतसिंह-(आगे बढ़ कर) अन्नदाता अलग रहें, इन अभागों को मैं अभी ठीक किये देता हूँ। युद्ध करता है। ,