पृष्ठ:राजसिंह.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दृश्य चौथा अंक. तरह अपना धर्म मैं भी समझती हूँ। मैंने जब अपने को आपके अर्पण कर दिया और बड़ों ने आपकी गाँठ बाँध दी तो यह तन-मन आपका हुआ और अब क्या कहूँ। राणा-परन्तु कुमारी, वह सब बातें तो विवश होकर की गई थीं। बादशाह से बचने की दूसरी राह नहीं थी। मेरा क्षत्रिय धर्म और राजधर्म दोनों ही यह कहते हैं कि शरणागत से अनुचित लाभ न उठाया जाय। चारुमती-तो महाराज क्या कहना चाहते हैं ? राणा-यही कि अब तुम रूपनगर जाओ और जैसा तुम्हारे गुरुजनों का आदेश हो वह करो। चारुमती-जैसी आपकी आज्ञा । आप मुझे रूपनगर भेजेंगे तो मै वहीं चली जाऊँगी परन्तु वहां जाने पर दिल्ली के दैत्य से मै बच न सकूगी। रूपनगर की शक्ति मेरी रक्षा न कर सकेगी, मुझे फिर महाराज की शरण लेनी पड़ेगी। परन्तु अब मैं आपको व्यर्थ कष्ट न दूंगी, दिल्ली चली जाऊँगी। राणा-दिल्ली क्या रंगमहल में जाओगी । ऐसा ही विचार था, तो पहिले ही क्यों नहीं गई थीं। चारुमती-पहिले सोचा था कि "खैर जाने दीजिए। राणा कुमारी, यदि बादशाह की बेगम बनने का तुम्हारा इरादा हो गया है, तो मैं उसमें विघ्न न करूंगा।