मिलाने की खट पट करता रहा था। व़िजयी होने पर उसने राणा की पद वृद्धि कर ६ हज़ार ज़ात व ६ हज़ार संवार का फरमान भेजा और ५ लाख रुपये तथा १ हाथी और हथिनी भेजी। साथ ही कुछ परगने वापिस कर दिये। राणा कूट- नीतिज्ञ औरंगज़ेब के इस व्यवहार पर पिघल गये और दारा की मदद न की। हालाँकि उसने सिरोही में शरण लेने के बाद राणा को एक करुण पत्र लिखा था। अगर उस समय महाराणा और राठौर जसवन्तसिंह मिलकर दारा की सहायता करते तो भारत के इतिहास का कुछ और ही रंग होता।
अस्तु! इधर राणा अपने भीतरी संगठन में लगे उधर औरंगज़ेब ने अकंटक हो अपने हाथ पैर निकाले। उसकी मुल्ला वृत्ति और पक्षपात पूर्ण शासन तथा पिता और परिवार के साथ किये दुर्व्यवहार के कारण हिन्दुओं में काफी असन्तोष फैल गया और घटनाचक्र से राजसिंह बादशाह के भारी कोप भाजन बन गये। राजसिंह को परिस्थिति से विवश हो भारी २ शाही अप- राध करने पड़े। उन्होंने बादशाह की मंगेतर रूपनगर की राज- कन्या से ब्याह किया। गोवर्धन के गुसाइयों को नाथद्वारा और कांकरौली में आश्रय दिया। जसवन्तसिंह के पुत्र को शरण दी। सब से अधिक बादशाह को जज़िया के विरुद्ध उपदेश दिया। इन सब कारणों से रुष्ट होकर बादशाह अपनी समस्त सेना को ले मवाड़ पर चढ़ दौड़ा। परन्तु दुर्गम अरावली की गोद में मेवाड़ का राजवंश और जनता आश्रय पाकर अल्प शक्ति होने पर भी बादशाह को तंग करने में सफल हुए।
सन् १६७९ की तीसरी सितम्बर को बादशाह ने महाराणा से लड़ने के लिये दिल्ली से प्रस्थान किया और १३ दिन कूच करके अजमेर में आनासागर पर पड़ाव डाला। शाहज़ादा अक-