पृष्ठ:राजसिंह.djvu/८९

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राजसिंह [नवाँ बढ़ती ही जाय । फिर तुम्हें मालम है-पृथ्वी गोल है, सूर्य के चारों ओर धरती घूमती है, अविरल गति मे प्रकृति का यह क्रम चल रहा है। सखी, जिसे हम प्रभात-मव्यान-सायंकाल और रात्रि कहते हैं वह मत्य कुछ नहीं, परिस्थितियों का परिवर्तन है । प्रकृति तो एक रस-एक भाव से अप्रतिहत गति से अपने मार्ग पर चल रही है। तीसरी-तो फिर जीवन भी ऐसा ही रहा? रानी-तब क्या ? जीवन का जो केन्द्र विन्दु है, वह तो न कभी बालक होता है, न वृद्ध, न उसमें वासना उद्दीप्त होती है, न शमन । यह सब तो भौतिक परिवर्तन हैं। उसी प्रकार, जैसे सूर्य न कभी अस्त होता है न उदय । वह तो ध्रुव रूप से अपने स्थान पर स्थिर होकर तेज बखेरता है । विकल्प के नेत्र ही उसका उदय अन्न देग्व पाते हैं। . दूसरी सखी-तब तेजस्वी पुरुषों का भी यही हाल है। बाह्य दृष्टि से जो उनका उत्थान-पतन दीव पड़ता है वह सब विकल्प है ? वे हर हालत में वैसे ही तेज और शक्ति के अधिष्ठाता रहते है रानी-निश्चय ही! (हंसकर) परन्तु सखियों हम लोग ना