दूसरा अंक ७ दृश्य आनन्द विलास हास करतीं करती तात्विक विवेचना में लग गई । (देखकर) लो महाराज आ रहे हैं। ( कुमार जयसिंह पाते हैं, सब सखियाँ अदब से हट जाती हैं ) रानी-हंसकर) आज आपके आखेट का दिन है न ? जयसिंह-है तो। रानी-कहाँ, तैयारी तो कुछ नहीं दीख पड़ती। जयसिंह- (हंसकर) सोचता हूँ, तुम्हारे इस प्रेमप्रसाद को छोड़ कर कहाँ जाऊँ । जाने दो आज मेरा नहीं तुम्हारे आखेट का दिन रहे। रानी-वह कैसे स्वामिन् । जयसिंह-(हंसकर) बिल्कुल सीधी बात है प्रिये ! मैं तो तुम्हारा सर्वसुलभ आखेट हूँ। रानी-सच ? पति क्या स्त्रियों के सुलभ आखेट हुआ करते हैं, खासकर क्षत्रिय पति। जयसिंह-मैं तो यही समझता हूँ। पुरुषों का शिकार स्त्रियाँ अनायास ही कर डालती हैं। स्त्रियों के नयन वाणों से रानी-छीः स्वामी, वीर राजपूत भी यदि कामिनी के नयनवाण के आखेट हुए तो फिर वे देश पर, धर्म पर, जाति पर जीवन को उत्सर्ग कैसे कर सकेगे? जयसिंह-उत्सर्ग ? जीवन की इस मध्यावस्था में ? तुम्हीं तो
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