पृष्ठ:राजसिंह.djvu/९७

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राजसिंह [पहिला रत्नसिंह-अच्छा कहता हूँ-सुनो। राजकुमारी-(हंसकर फिर लजाकर) अब और कैसे सुनूं ? रत्नसिंह-(निकट श्राकर। हमारा विवाह शीघ्र हो जाना चाहिए। राजकुमारी-(लाज से सिकुड़कर) छी, यह भी कोई सुनने की बात है। (जाना चाहती है) रत्नसिंह-(गस्ता रोक कर) कैसे नहीं है। क्या तुम यह बात सुनना नहीं चाहती? राजकुमारी-मैं क्या जानू । अब मैं जाती हूँ। (जाना चाहती है) रत्नसिंह-(रास्ता रोक कर) जा न सकोगी। जवाब दो। राजकुमारी-पिताजी से कहिए । परन्तु रत्नसिंह-परन्तु क्या ? राजकुमारी-बिना महाराज के आये...... रत्नसिंह-विवाह कैसे होगा, यही न ? राजकुमारी-हाँ, पिताजी ने प्रतिज्ञा की थी कि...... रत्नसिंह-कि वे अपनी पुत्री को मेरे पिताजी के हाथ सौपेंगे। और उन्होंने प्रसन्नता से तुम्हें पुत्रवधू बनाना स्वीकार कर लिया था। अब वे क्या बिना पिताजी की उपस्थिति के ब्याह न करेगे ? राजकुमारी-मैं नहीं जाननी, आप पिताजी से पूछिए। परन्तु क्या ऐसे समय में जब देश पर शत्रुओं की चढ़ाई का भय है, आपका विवाह की बातें करना उचित है। रलसिंह-तुमसे किसने पाहा कि शत्रु की चदाई का भय है।