पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/१२१

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-- सामन्तों के परामर्श के अनुसार विजय सिंह से भेंट करने के लिए जिस समय राजा जयसिंह चलने के लिए तैयार हो रहा था, उसी समय उसके मन्त्री ने कहा- "आपकी माता ने मुझे आपके पास भेजा है और कहा है कि दोनों भाइयों में जो परस्पर मेल और स्नेह पैदा होने जा रहा है, उस शुभ अवसर को देखने से मुझे क्यों वंचित किया जाता है।" मन्त्री की इस वात को सुनकर सामन्तों ने कहा- "हम लोगों को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। वे जरूर चल सकती हैं।" सामन्तों की इस बात को सुनकर मन्त्री ने राजमाता से जाकर कहा। वह अपने चलने के लिए तैयारी करने लगी। उसके साथ चलने वाली अन्तःपुर की स्त्रियों के लिए तीन सौ रथ सजाये गये। जिस पालकी में राजमाता को बैठना चाहिए था, उसमें उसके स्थान पर भाटी सामन्त उग्रसेन बैठा और प्रत्येक रथ के भीतर स्त्रियों के वदले दो-दो शस्त्रधारी सैनिक तैयार होकर वैठे। सामन्त लोग पहले ही राजा जयसिंह के साथ चले गये थे। उनको राजमाता की इस तैयारी का कुछ भी पता न था। यह तैयारी जयसिंह और उसके बुद्धिमान मंत्री के द्वारा हुई थी। उग्रसेन और रथों में बैठे हुए सैनिकों के अतिरिक्त प्रजा में इस बात की किसी को भी जानकारी न थी। पालकी और तीन सौ रथों के रवाना होने पर राजस्थान की प्रथा के अनुसार पालकी पर सोने के सिक्कों की वर्षा की गई। दोनों ओर दरिद्रों ने मोहरों को लूट कर राजा और राजमाता की जय-जयकार की। राजमार्ग पर एकत्रित स्त्री- पुरुषों ने दोनों भाइयों के स्नेहपूर्ण मिलन को सुनकर प्रसन्नता प्रकट की। राजा जयसिंह के साथ सामन्त लोग पहले ही सांगानेर पहुँच गये थे और वे लोग राजमाता के आने का रास्ता देख रहे थे। इसी समय एक दूत ने आकर कहा- "राजमाता सांगानेर के महल में चली गयी है।" यह सुनते ही जयसिंह घोड़े पर बैठा और महल की तरफ चला गया। रास्ते में विजय सिंह से भेंट हो गयी। दोनों भाई स्नेहपूर्वक एक-दूसरे से मिले। इसी समय जयसिंह ने विजयसिंह को प्रसन्न होकर बसवा नगर के शासन की सनद दी और कहा- "यदि तुमको आमेर राज्य के सिंहासन पर बैठने की अभिलापा है तो में हर्पपूर्वक तुम्हारे लिये सिंहासन छोड़ दूंगा और बसवा में जाकर रहने लगूंगा।" जयसिंह के मुख से इस उदारतापूर्ण वात को सुनकर विजयसिंह ने कहा- सिंहासन पर बैठने की अव मेरी इच्छा नहीं है। आप इस बात का विश्वास रखें।" इसके बाद दोनों भाई सामन्तों के बीच में बैठकर स्नेहपूर्वक वातें करते रहे। उसी पत्थर पर जयसिंह के मन्त्री ने आकर सामन्तों से कहा- "राजमाता ने आप लोगों के पास मुझे भेजकर कहा है कि यदि आप लोग कुछ देर के लिए यहाँ से चले जावें तो राजमाता यहाँ आकर दोनो भाइयों को प्रेम से बातें करते हुए देखना चाहती हैं।" दूत की इस वात को सुनकर सामन्त कुछ देर तक आपस में बातें करते रहे। सबकी सलाह से दोनों भाई महल के उस कमरे मे चले गये, जिसमें राजमाता पहले से मौजूद थी। कमरे के द्वार पर एक पहरेदार खड़ा था। जयसिंह ने अपनी कमर से तलवार निकालकर पहरेदार को दे दी और कहा कि माता के पास जाने में तलवार की क्या आवश्यकता है। विजय सिंह ने भी अपने भाई का अनुकरण किया और उसने भी अपनी तलवार निकाल कर पहरेदार को दे दी। इसी समय म ने क दरवाजा खोला। विजय सिंह उस कमरे के राज