पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/१५७

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करने के लिए उसके दो आदमियों को अपने यहाँ बुलवाया। उसके आने पर वहादुर खाँ ने कहा- "वादशाह ने खण्डेला के देव-मन्दिरों को विध्वंस करने का हमें आदेश दिया है। लेकिन यदि खण्डेला राजा वादशाह की अधीनता स्वीकार कर लेता है और अपने मन्दिरों के समस्त सोने के कलशों को हमें दे देता है तो हम मन्दिरों को विध्वंस नहीं करेंगे।" बहादुर खाँ के मुख से इस बात को सुनकर सुजान सिंह के दोनों प्रतिनिधियों ने नम्रता के साथ उससे बातें की और बहुत-सा धन उसको देना मंजूर किया। लेकिन बहादुर खाँ उस पर राजी न हुआ और उसने स्पष्ट शब्दों में कहा-"आपको किसी भी दशा में यहाँ के मन्दिरों के कलश देने पड़ेंगे।" सेनापति बहादुर खाँ की इस हठ को सुनकर स्वाभिमानी दोनों राजपूतों को क्रोध मालूम हुआ। उन्होंने गीली मिट्टी का एक-एक कलश बनाकर उसके सामने रखा और एक ने कहा- "मन्दिरों से सोने के कलशों की बात तो बहुत दूर है, इस मिट्टी के कलश को ले लेने का अधिकार किसमें है, यह मैं देखना चाहता हूँ।" ____ इस प्रकार दोनों ओर से आवेश पूर्ण बातें हुई। वहादुर खाँ के साथ दोनों राजपूत कुछ निर्णय न कर सके। वे अंत में इस बात को समझकर कि युद्ध होना अनिवार्य है। वहाँ से चले गये। उन दिनों में खण्डेला में कोई दुर्ग न था। वहाँ का राज-प्रसाद एक ऊँचे शिखर पर बना हुआ था। उस शिखर से एक रास्ता सरदारों के निवास स्थान की तरफ गया था। उस रास्ते पर मन्दिर बना हुआ था। सुजान सिंह ने अपने साथ के कुछ लोगों को शिखर के सभी रास्तों पर रखा और वह स्वयं साथ के दूसरे आदमियों को लेकर मन्दिर की रक्षा करने के लिए तैयार हुआ। सुजान सिंह भली प्रकार इस बात को समझता था कि बादशाह की इतनी वडी सेना के सामने हम लोग कुछ कर न सकेंगे और अन्त में मारे जाएंगे। लेकिन अपने मन्दिरों की रक्षा करने में प्राणोत्सर्ग करना वह राजपूतों का एक परम धर्म समझता था। इसलिए अपने थोड़े से आदमियों को लेकर निर्भीकता के साथ वह तैयार हो गया। इसके बाद बादशाह की सेना ने आगे बढ़कर उन राजपूतों पर गोलियों की वर्षा आरम्भ की, जो मन्दिर की रक्षा के लिए खड़े हुए थे। राजपूतों ने भी साहस के साथ मुगल सेना के आक्रमण का जवाव दिया। युद्ध आरम्भ होने के थोड़े समय बाद लड़ते हुए वे राजपूत मारे गये। इसके वाद मुगल सैनिक मन्दिर की तरफ बढे । यह देखकर सुजान सिंह और उसके साथियों ने एक बार मन्दिर की मूर्ति को प्रणाम किया और फिर वे शत्रु के साथ युद्ध करने लगे। कुछ देर के बाद शेप राजपूतो के साथ सुजान सिह भी मारा गया। मुगल सैनिकों ने मन्दिर को तोड़कर उसकी मूर्ति के टुकडेटुकड़े कर डाले। बहादुर खाँ ने सुजान सिंह और उसके साथियों को मारकर खण्डेला पर अधिकार कर लिया और वहाँ का प्रबन्ध करने के लिए उसने अपने साथ के सैनिकों की एक सेना छोड़ दी। खण्डेला से भागकर बहादुर सिंह कुछ दूरी पर बसे हुए एक ग्राम में जाकर रहने लगा था। अपने दीवान की सहायता से वह वहादुर खाँ से मिल गया और आमदनी का कुछ साधन पैदा करके वह अपने दिन काटने लगा। इसके बाद बादशाह की तरफ से उसको कुछ और सुविधा मिली। उसने अपने रहने के लिए बादशाह से महल भी प्राप्त कर लिया। 149