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पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/२०८

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श्वेत चद्दर से ढंकी हुई दिखायी पड़ी। राजस्थान की प्रसिद्ध नमक की झील की उत्पत्ति का यही कारण कहा जाता है। माणिकराय ने उस झील का नाम देवी के नाम पर शाकम्भरी झील रखा और उस झील के कुछ फासले पर एक छोटे से द्वीप में देवी की प्रतिष्ठा की। उस देवी की प्रतिमा आज तक यहाँ पायी जाती है। शाकम्भरी का नाम बहुत दिनों के बाद विगड़ कर साँभर हो गया है। माणिकराय ने-जो उत्तरी भारत के चौहानों का आदि पुरुप माना जाता है-अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया। उसके कई सन्तानें पैदा हुईं। उसके वंशजों ने पश्चिम राजस्थान में पहुँच कर बहुत-सी शाखाओं की सृष्टि की और सिन्ध नदी तक उनका विस्तार हो गया। खीची, हाडा, मोयल,निरवान, भदौरिया, भूरेवा, धनेरिया अथवा यंधेरिया और वाचडेवा आदि समस्त शाखाये माणिकराय के वंशजों के द्वारा पैदा हुई हैं। खीची शाखा के लोगों ने दूरवर्ती दोआब में जाकर जो सिन्ध सागर के नाम से प्रसिद्ध है, रहना आरम्भ किया। वहाँ की भूमि का विस्तार वेतवा नदी से लेकर सिन्ध नदी तक अड़सठ कोस है। उसकी राजधानी का नाम खीचीपुर पाटन था। हाड़ा शाखा के लोग हरियाणा प्रान्त के असी अथवा हाँसी नामक स्थान को जीतकर वहाँ रहने लगे और उनकी एक शाखा गोवाल कुण्ड--जो अब गोलकुण्डा के नाम से प्रसिद्ध है-पहुँच गयी और उसके बाद उस शाखा के लोगों ने वहाँ से चलकर आसेर नामक स्थान पर अधिकार कर लिया। मोयल लोगों ने नागौर के आस-पास के सव स्थानों पर अधिकार कर लिया था। भदौरिया लोगों ने चम्बल नदी के किनारे विस्तृत भूमि पर अधिकार कर लिया। वह भूमि उसी शाखा के नाम से आज तक भदावर नाम से प्रसिद्ध है और अब तक उन्हीं के अधिकार में है। धुंधरिया शाखा के लोगों ने शाहाबाद जाकर रहना आरम्भ किया था। यह स्थान कुछ दिनों के वाद कोटा की हाड़ा शाखा के अधिकार में चला गया। उनमें से एक शाखा के लोगों ने नारोल में रहना आरम्भ किया था। परन्तु उन लोगों ने अपने मूल वंश चौहान को कभी नहीं छोड़ा। माणिकराय के वंशजों ने मरुभूमि में फैलकर बहुत से स्थानों परअधिकार कर लिया था। उनमें से कुछ लोगों ने स्वतंत्रता पूर्वक शासन किया और कुछ लोगों ने स्वजातीय राजाओं की अधीनता में शासन किया। जागा नामक ग्रन्थ में माणिकराय से लेकर बीसलदेव तक ग्यारह राजाओं के नामों का उल्लेख मिलता है। हर्पराज के बल-पौरूप की प्रशंसा जागा तथा हमीर रासा नामक ग्रन्थों x नारोल अथवा नाडोल किसी समय बिलकुल सम्पन्न था। अनेक बातों के द्वारा इस बात के प्रमाण पाये जाते हैं। आठवीं शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी तक वह अपनी समृद्धि के लिए विख्यात रहा।सन् 983 ईसवी में राव लाखनसी वहाँ के सिंहासन पर था। उसने नाहर वाला के राजा के साथ युद्ध किया। ग्रन्थों में इस बात के उल्लेख पाये जाते हैं कि सम्वत् 1039 में चौहान राजा ने पाटन और मेवाड़ से कर वसूल किया था। उन दि! में उसकी शक्तियाँ अत्यन्त प्रवल थीं, सुबुक्तगीन और उसके लड़के महमूद ने लक्ष्मण के शासन काल में नाडोल पर आक्रमण किया था और भयानक रूप से उसे लूट कर वहाँ के दुर्ग को बुरी तरह से नष्ट कर दिया था। लेकिन समय का परिवर्तन हुआ। परिस्थितियों को बदलने में देर नहीं लगती। नाडोल के राजा ने अपने खोये हुए गौरव को फिर से प्राप्त कर लिया। तेरहवीं शताब्दी मे इस वंश के लोगों ने अलाउद्दीन के साथ युद्ध किया था और उस युद्ध में वे लोग अधिक सख्या में मारे गये थे। उन्होंने नाडोल के राजा शहाबुद्दीन को कर देकर उसकी अधीनता स्वीकार ली थी। 200