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पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३४१

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नामक स्थान से हमारे वे आदमी जो वोझा लिए हुए चल रहे थे, हमसे छूट गये थे। इसलिए जहाँ पर हम लोग पहुँचे थे, वहाँ ठहरकर हम लोग उन छूटे हुए आदमियों का इन्तजार करने लगे। इसी समय वहाँ श्रीमन्दिर के प्रधान पुरोहित ने सुराट के निवासी एक सम्पत्तिशाली मनुष्य के साथ आकर हमसे भेंट की और उसने सम्मान में एक सुनहला अंगरखा एवम् एक सोने से मढ़ा हुआ नीले रंग का दुपट्टा मुझे दिया। इसके साथ-साथ अपने देश के बहुत से स्वादिष्ट फल भी उसने मेरे सामने रखे। उस पुरोहित की तरफ से दोपहर में भोग का दूध और बहुत से मिष्ठान पदार्थ भी आए थे। यहाँ पर लौदी नामक एक प्रसिद्ध स्थान है। वहाँ के मन्दिर की अधीनता में चालीस हजार दूध देने वाली गायें हैं। कहा जाता है कि इन गायों के समान दूध देने वाली गायें भारतवर्ष में अन्यत्र कहीं नहीं है। इनमें चार हजार गार्यों के दूध से खीर, रबड़ी , मक्खन इत्यादि बनाकर देवता को भोग लगाने के वाद सर्वसाधारण में बाँट दिया जाता है। सुराट के उस सम्पत्तिशाली वैश्व ने जो एक मूर्ति मेरे सामने पेश की, उसकी दैविक शक्ति के सम्बन्ध में उसने वहुत-सी वातें मुझसे कहीं और उस मूर्ति की उसने बड़ी प्रशंसा की। उसने कहा कि जमुना तट से जिस रथ पर श्री कृष्ण को नाथद्वारा लाया गया था, मैं उस स्थ पर बैठे हुए श्री कृष्ण की पूजा करता हूँ। भगवान के भक्तों को छोड़कर किसी दूसरे को यह मूर्ति पूजा के लिए नहीं दी जाती। भगवान ने कृष्ण का अवतार लेकर जव जिस अवस्था में जैसा श्रृंगार किया था, इस मूर्ति को उसी के अनुसार समय-समय पर श्रृंगार से सजाया जाता है। कंस को वध करने के समय धनुष वाण के साथ इस मूर्ति को दिखाया जाता है और दूसरे अवसरों पर मूर्ति का दूसरा ही रूप प्रकट किया जाता है। उस वंश के मुख से मूर्ति के सम्बन्ध में जितनी बातें निकली, मैं ध्यानपूर्वक उसको सुनाता रहा और उनके उत्तर में मैंने कोई भी आलोचनात्मक वात नहीं कही। मन्दिर के प्रधान पुजारी के सम्मान के बदले में मैंने एक पत्र लिखकर उसको इस आशय का दिया कि भविष्य में अंग्रेजी सरकार के किसी कर्मचारी को यहाँ के मोरों को मारने और पीपल के वृक्षों को काटने का अधिकार न होगा। साथ ही इस पवित्र स्थान में किसी प्रकार की कोई जीव हत्या न कर सकेगा। यह सब लिखकर मैंने उस पुजारी को दे दिया और उसके दिल में असन्तोप का कोई भाव पैदा न हो, इसलिए मैंने मन्दिर के आस-पास की भूमि को छोड़कर और नदी के पार दूर जाकर भोजन के लिए मुर्गो का वध किया। यद्यपि वह स्थान मन्दिर से दूर था, फिर भी मुर्गों के पंखों को मिट्टी खोदकर उसके भीतर भली प्रकार छिपा दिया। 17 अक्टूबर-अभी तक अपने छूटे हुए आदमियों से हम लोगों की मुलाकात नहीं हुई थी इसीलिए हम लोगों के दिलों में उनके सम्बन्ध में चिन्ता हो रही थी। किसी भी दशा में उन छूटे हुए आदमियों का पता लगाना जरूरी था। इसलिए असुरवास नामक स्थान की तरफ हम लोगों ने यात्रा की । वह कोट यहाँ से आठ मील की दूरी पर था और हम लोग दोपहर के 335