पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/३४०

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शाहपुरा में जाकर रहने लगा। वहाँ पर भी उसे शान्ति न मिली। इसलिए अपमानित अवस्था में विप खाकर उसने आत्महत्या कर ली। नरसिंह गढ़ का राजा निर्वासित अवस्था में यहाँ पर रहा करता था। परमार जाति के उच्च वंश में वह पैदा हुआ था। मध्य भारत मे रहते हुए उसके वंश वालों की पन्द्रह पीढियाँ बीत चुकी हैं। उसके राज्य का नाम उमतवाडा और राजधानी का नाम नरसिंह गढ़ था। लुटेरे पिण्डारियों और मराठा लोगों ने उसके राज्य के प्रत्येक ग्राम में अधिकार कर लिया था और इसके फलस्वरूप उसकी राजधानी नरसिंहगढ़ में जब होलकर का झण्डा फहराने लगा तो उसका राजा होलकर की अधीनता में रहने के लिए मजबूर हुआ। इसके सिवा उस समय कोई दूसरा उपाय न था। उन दिनों में होलकर और सिंधियाँ की चारों तरफ विजय हो रही थी और जिन पर उनके आक्रमण होते थे, उनको अधीनता स्वीकार करके कर देना मन्जूर करना पड़ता था। उमतवाडा के राजा ने आरम्भ में अस्सी हजार रुपये वार्पिक कर में देना स्वीकार किया था। इतना कर वसूल करने के बाद भी होलकर की सेना के अत्याचार उनके राज्य में वराबर होते रहे और लूटमार से उसकी प्रजा का विनाश बन्द न हुआ। अनेक वर्षों के बाद सन् 1821 ईसवी में जब उस राज्य में शान्ति कायम हुई तो उस समय का राजा लगातार अफीम सेवन करने के कारण निर्बल और असमर्थ हो गया था। इसलिए वह अपने राज्य की दशा सुधारने में समर्थ न हो सका। उसका लड़का चैनीसिंह अपने पिता की तरह बुरी आदतों का शिकार नही हुआ था। इसलिए अंग्रेजी सरकार की व्यवस्था के अनुसार चैनीसिंह ने शासन करना आरम्भ कर दिया। 14 अक्टूबर-प्रातःकाल होते ही हम लोगों की यात्रा आरम्भ हुई और कुछ ही दूर आगे जाने पर मालूम हुआ कि आगे का रास्ता बहुत खराब और दलदलमय है। उस रास्ते में बोझे से लदे हुए ऊँटों को ले जाने में बड़ी मुश्किल पैदा हो गयी। यहाँ की चारों तरफ की भूमि ऊँची-नीची और पथरीली है। बड़ी कठिनाई के साथ लगभग चार सौ फुट ऊँचे नाथद्वारा के शिखर को पार किया। इसके चारों तरफ लाल पत्थरों का शिखर मालूम होता है। नाथद्वारा से तीन मील की दूरी पर पूर्व की तरफ बराबर की भूमि में यह बना हुआ है। इस स्थान के दोनो तरफ छोटे-छोटे तालाब हैं और उनसे दो नहरें निकलकर नगर की ओर बहती हैं। नहरो के दोनों तरफ वृक्षों की पंक्तियाँ हैं। इन वृक्षों के कारण उस रास्ते में चलने वालों को बहुत आराम मिलता है। हम लोगों का मुकाम नाथद्वारा के नीचे बहने वाली बनास नदी की दूसरी तरफ हुआ और वहाँ से जब हम लोग नगर की तरफ चले तो नगर के रहने वालों ने मार्ग के दोनों तरफ खड़े होकर अपनी प्रसन्नता प्रकट की। अंग्रेजी सरकार की सहायता से उन लोगों ने लुटेरो और अत्याचारियों से छुटकारा पाया था और उनके कन्हैया जी के मन्दिर की रक्षा हुई थी। इसलिए वे सब अंग्रेजों की प्रशंसा करने लगे। 15 अक्टूबर-अब जो मार्ग आगे आ रहा था, वह पहले से भी कठिन, दलदल से भरा हुआ और बहुत से स्थलों पर जलमग्न था। कुछ इसी प्रकार के रास्ते के कारण मैडता 334