पृष्ठ:राजस्ठान का इतिहास भाग 2.djvu/९२

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पर लिखी हुई पंक्तियों को देखा और उसने उसी समय मुँह बनाते हुए धीरे-धीरे कहा- 'इस कागज में राजकुमारी के डोला देने का तो कोई जिक्र ही नहीं।' उसके इस वाक्य के समाप्त होने के साथ-साथ चन्दावत सरदार ने बड़ी तेजी के साथ अपनी तलवार का ग्रहार बीजर खाँ के वक्ष स्थल पर किया और कहा- "यह डोला है" और "यह कर है", कहकर उसने अपनी तलवार का दूसरा प्रहार उस पर किया। बीजर खाँ भयानक रूप से जख्मी होकर सिंहासन पर गिर गया। उसी समय उसकी मृत्यु हो गयी। बीजर खाँ के गिरते ही वहाँ पर दोनों राजपूत सरदारों पर आक्रमण हुआ। उस आक्रमण में चन्दावत सरदार ने इक्कीस और भाटी सरदार ने पाँच आक्रमणकारियों का संहार किया। इसके बाद आक्रमणकारियों ने उन दोनों सरदारों के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। बीजर खाँ के मारे जाने पर उसका भतीजा, सोभान का बेटा फतेह अली वहाँ के राजसिंहासन पर बैठने के लिए चुना गया। कुलोरा का पुराना परिवार भाग कर भुज और राजपूताना चला गया और उसने कन्धार का आश्रय ग्रहण किया। वहाँ पर शाह ने पच्चीस हजार सेना पर उसे अधिकारी बना दिया। उस सेना के द्वारा उसने सिन्ध को विजय किया और भयानक अत्याचार करके उसने वहाँ पर अपनी अमानुपिकता का परिचय दिया। फतेहअली ने-जो भागकर भुज चला गया था-अपने अनुयायी साथियों को एकत्रित करके शाह की फौज पर आक्रमण किया और उसे पराजित करके शिकारपुर के बाहर उसने भीपण नर-संहार किया। इसके बाद उसने वहाँ पर अधिकार कर लिया। फतेहअली वहाँ से लौटकर हैदराबाद चला गया। निर्दयी कुलोरा लोगों ने एक बार फिर शाह पर आक्रमण किया और अपनी भयानक नीचता का व्यवहार करके उन लोगों ने शाह को वहाँ से भगा दिया। वह इधर-उधर घूमता हुआ मुलतान होकर जैसलमेर चला गया और पोकरण में जाकर वह रहने लगा। वहाँ पर उसकी मृत्यु हो गयी। पोकरण का सरदार उसका उत्तराधिकारी बना। उसने सिन्ध के स्वर्गीय बादशाह की सम्पत्ति पर अधिकार करके उस निर्वासित शाह की कब्र नगर के उत्तर की तरफ बनवायी। इन घटनाओं का सम्बन्ध मारवाड़ और सिन्ध के इतिहास के साथ है। लेकिन सोढा राजाओं के अन्तिम प्रभाव को प्रकट करने के लिए यहाँ पर उनका उल्लेख किया गया है। यह सब उस वजीर ने किया जिसका सर्वनाश विजयसिंह के सरदारों ने राजपूत बनकर किया। सोढा राजा अमरकोट से भागकर चला गया था। वहाँ पर सिन्धी और भाटी लोगों ने मिलकर अधिकार कर लिया। लेकिन सिन्धी फौज के पराजित होने पर विजयसिंह ने सोढा राजा को अमरकोट के सिंहासन पर अधिकार करने के लिए फिर से तैयार किया। इसके फलस्वरूप अमरकोट पर आक्रमण हुआ और वहाँ पर भयानक रूप से नर-संहार करके अफगानों के द्वारा नगरों की लूट हुई। उसके बाद आक्रमणकारियों ने अमरकोट पर अधिकार कर लिया। इस आक्रमण में विजयसिंह की सेना ने भी युद्ध किया था। इसलिए कन्धार की अफगानी फौज के सेनापति फतेहअली ने उस सहायता की कीमत में विजयसिंह को अमरकोट का अधिकार दे दिया। उस समय से लेकर अन्तिम गृह-युद्ध के दिनो तक वहाँ पर राठौरो का झण्डा फहराता रहा। उसके पश्चात् सिन्धी लोगों ने राठौरों को वहाँ से निकाल दिया। 84