मुक्ति दिलाने के लिए राजा उम्मेदसिंह को रुपये देने पड़े थे। ये सब बातें ऐसी थीं जो बहुत दिनों से राजा और सामन्त के बीच में चल रही थी। राजा इनका बदला लेना चाहता था। लेकिन इसके लिए उसको कोई रास्ता न मिलता था। राजा और सामन्त के बीच बढ़ते हुए द्वेष के कारण जागीर के किसानों को बहुत हानि पहुंची थी। झगड़ों के कारण जो भूमि दोनों सीमाओं के बीच में पड़ती थी, उसमें खेती न हो पाती थी। विरोधियों के द्वारा वह उजाड़ कर नष्ट कर दी जाती थी। इस प्रकार की लगातार हानि के कारण जागीर के बहुत से किसान अपने घरों और गाँवों को छोड़कर कर चले गये थे। राजा उम्मेदसिंह से आस-पास के दूसरे भूमिया सामन्त भी प्रसन्न न थे। इसका कारण राजा का अहंकार था। शाहपुरा का राजा उम्मेदसिंह न केवल बाहरी आदमियों के लिए अप्रिय था, बल्कि वह अपने राज्य और परिवार के लिए भी बहुत कठोर था। एक बार उसने अपने लड़के की कमर में रस्सी बाँध कर उसको शाहपुरा के मंदिर की ऊपरी छत से लटका दिया था और उसकी माता को बुलाकर उस भयानक दृश्य को देखने के लिए विवश किया था। राजा उम्मेदसिंह घोड़े पर बैठकर प्राय: इधर-उधर घूमा करता था और कभी-कभी कई-कई दिनों तक लौटकर वह अपने महल में नहीं आता था। एक दिन घूमता हुआ वह सामन्त दिलील के यहाँ अमरगढ़ में पहुंच गया। वहाँ पर सामन्त के साथ उसकी भेंट हो गयी। एक राजा को अपने यहाँ आया हुआ देखकर साधारण भूमिया सामन्त दिलील ने नम्रता के साथ उसको प्रणाम किया और अत्यंत सम्मान के साथ वह राजा को अपने महल में लिवा ले गया। सामन्त ने राजा के सत्कार में कोई कमी न रखी। दोनों ने एक स्थान पर बैठकर अफीम का सेवन किया। उसके बाद दोनों ने मिलकर एक साथ भोजन किया और अंत में आपस की शत्रुता को सदा के लिए मिटा देने की दोनों ने प्रतिज्ञायें कीं। इसके पश्चात् सामन्त ने बड़े सम्मान के साथ अपने यहाँ से राजा को विदा किया। राजा और सामन्त में इस प्रकार जो मित्रता कायम हुई, वह सभी लोगों को मालूम हो गयी। मेवाड़ के राणा ने उसे सुनकर सुख का अनुभव किया। उन्हीं दिनों में मेवाड़ के सभी सामन्त किसी अवसर पर उदयपुर में एकत्रित हुए। राजा उम्मेदसिंह और सामन्त दिलील भी वहाँ पहुँचा। वहाँ से लौटने के समय उम्मेदसिंह ने दिलील को शाहपुरा में आने के लिए निमंत्रण दिया। सामन्त ने हर्ष के साथ उसको स्वीकार किया और निश्चित दिन वह शाहपुरा पहुँचने के लिए अपने बीस अश्वारोही सैनिकों के साथ रवाना हुआ। सामन्त के शाहपुरा पहुँचने पर राजा उम्मेदसिंह ने उसका बड़ा आदर सत्कार किया और अपनी राजधानी में ले जाकर उसको रखा। दोनों ने एक साथ बैठकर भोजन किया। सामन्त को प्रसन्न करने के लिए राजा के दरबार मे बहुत सी बातें की गयी। नाच और गाना भी हुआ। पिछली शत्रुता को भुला देने के लिये दोनों मंदिर में गये और प्रतिज्ञायें की। मंदिर से लौटते समय, जब सामन्त सीढ़ियों से उतर रहा था, राजा उम्मेदसिंह की तलवार से सामन्त का सिर नीचे गिरा और सामन्त के गिरते ही मंदिर की सीढ़ियाँ रक्त से सराबोर हो उठीं। अतिथि सत्कार के समय राजपूत लोग एक साथ बैठकर बड़े स्नेह के साथ अफीम का सेवन किया करत एक साथ बैठकर भोजन करना राजपूतों में स्नेह का परिचायक माना जाता है। 1 थे। 2 104
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