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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१०६

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राज्य के सामने युद्ध की तरह का जब कोई गंभीर प्रश्न उपस्थित होता है तो मेवाड के समस्त सामन्त राजधानी में आकर अपना-अपना परामर्श देते हैं । राणा उनके परामर्शों की अवहेलना नहीं कर सकता। कुछ ऐसे अवसर भी राणा के सामने आते हैं, जिनका निर्णय करने के लिये राणा अपने प्रधान सामन्तों से परामर्श करता है और उनके समर्थन के आधार पर वह किसी निर्णय पर पहुँचता है । सामन्त शासन प्रणाली में राजा और सामन्तों का सम्बंध बहुत सम्मानपूर्ण और निकटवर्ती माना जाता है। सामन्त के प्रासाद के सामने आने का समाचार पाकर राणा सम्मानपूर्वक उसका अभिवादन स्वीकार करता है। इसके बाद सामन्त अपने अनुचरों के साथ राणा के दरबार में जाता है। वहाँ पर सामन्तों के बैठने के लिए बहुमूल्य गलीचों के साथ स्थान सजाये जाते हैं। भोजन के समय राणा भोजनशाला में सामन्त के साथ बैठकर भोजन करता है। राणा के दरबार में मर्यादा के अनुसार सामन्तों को स्थान मिलता है। राजस्थान के सभी राज्यों में मंत्री पद उन्हीं सामन्तों को मिलता है, जो वुद्धिमान, वीर और साहसी होने के साथ-साथ राजा को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। राजा प्रसन्नता ही मंत्री होने वाले सामन्त की योग्यता समझी जाती है। इन मंत्रियों को दीवानी के मामलों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होता। एक स्वतंत्र मंत्री दीवानी के कार्यों का निर्णय किया करता है। राजपूत मंत्री साधारण तौर पर युद्ध मंत्री माने जाते हैं। दीवानी विभाग के मंत्री पद पर राजपूत जाति का कोई भी मनुष्य साधारणतया नियुक्त नहीं किया जाता। कार्यों के अनुसार मंत्रियों को उपाधियाँ दी जाती हैं। यहाँ के राज्यों में मंत्री पद पर पैतृक अधिकार चला करता है। यह प्रथा बहुत पुरानी है। कुछ अर्थों में यह प्रथा अच्छी कही जा सकती है। लेकिन आमतौर से इस प्रकार की प्रथाओं का परिणाम अच्छा नहीं हुआ करता। सबसे बड़ी हानि यह होती है कि इन पुरानी प्रथाओं के मंत्री पद के लिए श्रेष्ठ व्यक्ति नहीं मिला करते। कोटा और जैसलमेर के राज्यों में मंत्रियों के अधिकार अधिक हैं। फ्रांस के प्रसिद्ध इतिहासकार मागंटेस्की ने अपने यहाँ मंत्रियों के सम्बंध में लिखा है - "यहाँ के मंत्री अपने राजाओं को महलों में बंदी बनाकर रखा करते थे और वे राजाओं को वर्ष में एक बार प्रजा के सामने आने का मौका देते थे। प्रजा को दर्शन देने के समय मंत्री लोग राजाओं को जितना सिखाते थे. प्रजा के सामने उतना ही बोलते थे।" मांगटेस्की के ये शब्द कोटा और जैसलमेर के मंत्रियों के कार्यों का चित्र हमारे सामने उपस्थित करते हैं। गोद लेने की प्रथा - पुत्र के अभाव में गोद लेने की प्रथा राजपूतों में बहुत पहले से चली आ रही है। यह प्रथा पैतृक अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए राजाओं में उत्पन्न हुई थी। इसके द्वारा उत्तराधिकारियों का कभी अभाव नहीं हो सकता। पुत्र के अभाव को पूरा करने के लिए यह एक सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था है। राजपूतों की तरह यह प्रथा पारसी और अन्य जातियों के लोगों में भी पायी जाती है। इस प्रथा के प्रभाव से, मेवाड़ के राजा और सामन्त के सामने उत्तराधिकारी का अभाव नहीं रहता। यह प्रथा उसके सम्मान और अधिकार को सुरक्षित बनाती है। यद्यपि इसके प्रायः भयानक दुष्परिणाम देखे जाते हैं। पुत्र न होने पर गोद लेने का कार्य प्रायः जीवन काल में ही होता है। सामन्त अपनी स्त्री के साथ पहले स्वयं गोद लिये जाने वाले लड़के का निर्णय करता है। उसके बाद वह अपना इरादा राजा के सामने रखता है, राजा अधिकतर उसे स्वीकार कर लेता है। जिस वालक को गोद लिया जाता है, वह वंश का सबसे अधिक समीपवर्ती होना चाहिये। यदि ऐसा न हुआ और निकटवर्ती अधिकारी विद्रोह करता है, तो उस समय राजा उसका - 106