पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१६०

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बाबर की सैनिक निर्बलता का राणा संग्रामसिंह ने कोई लाभ नहीं उठाया। नहीं तो उसने तातारी सेना का सर्वनाश करके बादशाह बाबर को आसानी के साथ भारत से बाहर निकाल दिया होता। लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। बाबर ने युद्ध बन्द करके राजपूतों को जीतने के लिए बहुत सी बातें सोच डाली । अन्त में उसने सन्धि करने के लिये अपना दूत राणा संग्रामसिंह के पास भेजा। शिलादित्य नामक एक तोमर राजपूत उन दिनों में राइसिन का एक सरदार था और मेवाड़ राज्य का सामन्त था। बाबर के साथ होने वाली सन्धि में वह मध्यस्थ बना। अनेक दिनों तक बावर और संग्रामसिंह के बीच संधि की बातचीत चलती रही। अन्त में वह असफल हो गयी। उसके बाद फिर दोनों ओर से युद्ध की तैयारियां होने लगीं। बाबर ने जिस सन्धि का प्रस्ताव किया था, उसकी शर्तों में यह भी तय हो गया था कि दिल्ली और उसकी अधीनता के समस्त इलाके बाबर के अधिकार में रहेंगे और बयाना के पास बहने वाली पीलीनदी मुगल और मेवाड़ राज्य की सीमा समझी जायेगी। इस सन्धि के अनुसार मुगल बादशाह निश्चित कर की रकम राणा को दिया करेगा। बाबर उस समय ऐसी परिस्थिति में था कि उसने सन्धि की इन शर्तों को स्वीकार कर लिया और उसे इनकार करने का कोई मौका न था। लेकिन शिलादित्य के परामर्श के अनुसार संग्रामसिंह ने इस सन्धि को अस्वीकार कर दिया। उसके फलस्वरूप दोनों तरफ से फिर युद्ध की तैयारियाँ हो गयीं। एक महीने तक अपने शिविर में रहकर और सन्धि के अस्वीकृत होने पर अपने शिविर को छोड़कर सेना के साथ युद्ध के लिए बाबर फिर रवाना हुआ। 16 मार्च को दोनों ओर की सेनाओं का सामना हुआ और भयंकर संग्राम आरम्भ हो गया। इस बार के युद्ध में राजपूत अधिक संख्या में मारे गये। जिन शूरवीर सरदारों पर राणा का अधिक विश्वास था, उन सब का युद्ध में सर्वनाश हुआ। इसके बाद भी युद्ध की • गति अनिश्चित रूप में चल रही थी। युद्ध की हार और जीत के सम्बन्ध में अभी तक कुछ कहा नहीं जा सकता था। राणा संग्रामसिंह के साहस और विश्वास में किसी प्रकार की कमी नहीं आयी थी। मार-काट दोनों ओर से भीषण होती जा रही थी। इस भयानक समय में मेवाड़ राज्य का सामन्त शिलादित्य जिसके परामर्श से राणा ने सन्धि को अस्वीकार कर दिया था, अपनी सेना के साथ बाबर के साथ मिल गया। उसके इस देशद्रोह और विश्वासघात के कारण युद्ध की परिस्थिति बदल गयी और थोड़े ही समय में राजपूतों का भयानक रूप से संहार हुआ। राजस्थान के बहुत-से शूरवीर सैनिक उस समय मारे गये और राणा संग्रामसिंह के शरीर में बहुत-से भयानक घाव आये। अपनी उस जख्मी अवस्था में बची हुई सेना के साथ संग्रामसिंह पीछे हट गया और मेवाड़ के पर्वत की ओर जाते हुए उसने कहा, "मैं चित्तौड़ में लौटकर उस समय तक न जाऊंगा, जब तक मैं मुगल बादशाह को पराजित न कर लूंगा।" बाबर के साथ युद्ध के अन्तिम समय में राणा संग्रामसिंह की पराजय हुई। उसके साथ ही दूंगरपुर के रावल उदयसिंह और उसके दो सौ वीर सैनिक, सलुम्बर के राजा रत्नसिंह और उसके तीन सौ रुंडावत सिपाही, मारवाड़ के राठौड़ राजकुमार रायमल और उसके मेड़ता निवासी दो साहसी योद्धा क्षेभसिंह और रत्नसिंह, सोनगरा सरदार रामदासराव, झला सरदार ओझा, परमार वंश के गोकुलदास, मेवाड़ के चौहान मानकचन्द और चन्द्रभान आदि सभी सूरमाओं का संहार हुआ। दो मुसलमान वीर जो राणा संग्रामसिंह की सहायता के लिए बाबर की सेना के साथ युद्ध करने आये थे, लड़ते हुए मारे गये । इनमें एक डुब्राहीमु लोदी था, जिसको बाबर ने दिल्ली में आकर पराजित किया था और दूसरा बहादुर हुसैन खाँ था। राजपूत सेना के जितने भी योद्धा मारे गये उनमें ये लोग प्रमुख थे। -- 160