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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/१८

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त्रुटियाँ रह गई थीं, उनको दूर करने का काम मेरे द्वारा हुआ। यहाँ पर यह लिखना अनुचित न होगा कि मेरे बाद जो नक्शे बने हैं, उनका आधार मेरा तैयार किया हुआ नक्शा रहा। उदयपुर जाने के लिये अंग्रेजी दूत का रास्ता आगरा से जयपुर की दक्षिणी सीमा से होकर था। इस रास्ते के कुछ अंश की पैमाइश डाक्टर डब्ल्यू हण्टर ने की थी। मैंने अपनी पैमाइश में उसको आधार मान लिया। डाक्टर हण्टर का तैयार किया हुआ नक्शा उस रेजीडेण्ट के पास मौजूद था, जो सिंधिया दरबार को भेजा गया था और जिससे होकर सन् 1791 ईसवी में राजदूत कर्नल पामर गया था। उतने भाग का नक्शा वह सही था। इसलिए अपनी पिछली पैमाइश में मैंने उसी का आधोर लिया। उस नक्शे में मध्य भारत के समस्त सीमा के स्थान दिखाये गये थे। उस नक्शे में आगरा, नर्बर, दतिया, झाँसी, भोपाल, सारंगपुर, उज्जैन और वहाँ से लौटने पर कोटा, बूंदी, रामपुरा और बयाना से लेकर आगरा तक सभी स्थानों को प्रकट किया गया था। इस प्रकार डाक्टर हण्टर का जो नक्शा था, वह रामपुरा तक ही मेरे लिये सहायक रहा। उसके पश्चात् रामपुरा से उदयपुर तक मुझे नयी पैमाइश करनी पड़ी जिस सेना के साथ मैं था, उदयपुर से चित्तौड़ के करीब से गुजरती हुई वह सेना मालवा के मध्य में पहुँचकर विन्ध्याचल से निकलने वाली अनेक नदियों को पार करती हुई बुन्देलखण्ड की सीमा पर खिमलासा में जाकर रुकी और कुछ दिनों तक वहाँ पर उसने मुकाम किया। सिंधिया के दरबार में रहकर मैं इस प्रदेश के विभिन्न स्थानों में घूमता रहा और पैमाइश का काम करता रहा । सन् 1810 और 11 में पैमाइश करने वालों की मैंने टोलियाँ नियुक्त की और आवश्यकता के अनुसार मैं उनसे काम लेने लगा। अपने इस काम के लिये मैंने और भी साधन जुटाये थे। पारितोषिक देकर मैंने इस देश के अनेक जानकारों से काम लिया। प्राचीन हिन्दू राज्यों में एक नगर से दूसरे नगर की दूरी का हिसाव रहता था। जिन लोगों को मैंने इस काम में लगा रखा था, उनके कामों को मैं देख-सुनकर सही समझने का प्रयास करता था। इन तरीकों से कई वर्षों में मैंने यहाँ के रास्ते का नक्शा तैयार कर लिया और फिर उनकी सहायता से एक साधारण नक्शा तैयार किया। उसके बाद बने हुए नक्शों की त्रुटियों को समझने का काम किया। पैमाइश के काम में मैंने बड़ी साधानी से काम लिया। सन् 1815 ईसवीं में मैंने जो नक्शा तैयार करके गवर्नर जनरल को दिया था, उससे भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को काम करने में बड़ी सहायता मिली। पिण्डारियों के युद्ध में उस नक्शे ने बहुत काम किया और बाद में पेशवा के राज्य को छिन्न-भिन्न करने में उसने विशेष सहायता पहुँचायी। सन् 1817 से 1822 ईसवी तक की पैमाइश करके मैंने रेखायें तैयार की, इस स्थान पर मैं कप्तान पी. टी. वाध के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिनकी सहायता से मेरे कार्य में बहुत कुछ सुधार हुआ। उनकी पैमाइश से चित्तौड़, माण्डलगढ़, जहाजपुर, राजमहल, भिणाय, बदनौर और देवगढ़ की तरह के अनेक स्थानों का कार्य सरल हो गया। सन् 1820 ईसवी में मैंने अरवाली को पारकर एक यात्रा की और उसमें मैं कुम्भलमेर और पाली होता हुआ मारवाड़ की राजधानी जोधपुर और मेड़ता होकर लूनी नदी की खोज करता हुआ अजमेर तक पहुँच गया। उसके बाद घूमता हुआ उदयपुर लौट आया। १. पाटलिपुत्र (पटना) के मौर्यवंशी राजा चन्द्रगुप्त के दरबार में सीरिया के राजा सेल्युकस का एलची मैगस्थनीज ईसा से 306 वर्ष पूर्व आया था, उसने लिखा है कि भारतवर्ष में प्रत्येक दस स्टेडियम के फासले पर कोसों के पत्थर लगे हुए हैं। एक स्टेडियम 606 फीट 9 इंच का होता है । 18