सके और उस ओर से राणा के बाहर निकलने का मार्ग बंद कर सके। 12 अक्टूबर, 1576 ई. के दिन अकबर स्वयं एक बड़ी सेना लेकर अजमेर से रवाना हुआ । उसका विचार था कि उसके जाने से मेवाड़ के लोग डर जावेंगे और राणा प्रताप को पकड़ना आसान हो जावेगा। वह मांडलगढ़ और मदारिया होता हुआ मोही नामक स्थान पर पहुँचा । रवाना होते समय अकबर ने भगवंतदास और मानसिंह को अग्रिम सैन्य-दल देकर गोगुंदा भेजा ताकि वहां कुतुबुद्दीन खाँ के साथ सहयोग करके प्रताप का पता लगावे और उसके बल को नष्ट करे। मोही पँहुचकर अकबर ने गोगुंदा आदेश भिजवाया कि कुतुबुद्दीन मुहम्मद खाँ और भगवंतदास आदि तो गोगुंदा में रहकर अपनी कार्यवाही करें और कुल्तज खाँ अन्य अमीरों को साथ लेकर हज-यात्रीदल के साथ रहकर ईडर पहुंचे। वहां से वह हुज यात्रियों को अहमदाबाद की ओर सुरक्षित पहुँचाने का प्रबंध करके ईडर का घेरा डाले और वहां के राजा नारायणदास का खात्मा करे। राणा प्रताप के ईडर के इलाके में होने का समाचार सुनकर मोही से अकबर ने मीर गयासुद्दीन और आसफखाँ आदि को ससैन्य ईडर पर आक्रमण करने के लिये अलग से रवाना किया। उधर राणा प्रताप मुगल सेना के गोगुंदा और कुम्भलगढ़ की ओर कूच करने के समाचार सुनकर वहां से निकल कर ईडर के निकटवर्ती दक्षिणी पहाड़ी भाग में जा डटा था। जब मुगल सेना ईडर पहुंची तो नारायणदास पहाड़ी भाग की ओर जाकर राणा प्रताप से जा मिला। फिर भी ईडर आसानी से नहीं जीता जा सका। राजपूतों ने वीरता पूर्वक मुगल आक्रमण को रोका, जिसमें मुगल सेना के उमरखां और हसनबहादुर मारे गये । उसी समय प्रताप से सहायता प्राप्त करके नारायणदास पहाड़ों से निकला और मुगल सेना की अग्रिम पंक्ति पर अचानक हमला बोल दिया, जिससे बड़ी संख्या में मुगल सैनिक मारे गये। किन्तु लम्बी लड़ाई के बाद अंत में 23 फरवरी, 1577 ई. को ईडर पर मुगल सेना का अधिकार हो गया और नारायणदास पुनः पहाड़ों में प्रताप के पास चला गया। अकबर मोही से रवाना होकर हल्दीघाटी के रास्ते से होकर उदयपुर पँहुचा। सम्भवतः वह मार्ग में गुलाब के फूलों वाले उस बाग में ठहरा, जहां प्रताप ने खमणोर के युद्ध से पूर्व मुकाम किया था। इसके कारण बाद में वह बगीचा बादशाही बाग के नाम से जाना गया। डॉ. गोपीनाथ शर्मा तथा कतिपय अन्य इतिहास-लेखक अकबर का गोगुंदा पहुँचना लिखते हैं, जो सही नहीं है। वह सीधे उदयपुर पहुंचा, जहाँ वह लगभग दो माह रहा। बादशाह के उदयपुर पहुँचने पर कुतुबुद्दीन खाँ और राजा भगवंतदास गोगुंदा से बादशाह के पास चले आये, जहां वे प्रताप का पता लगाने में असफल रहे थे। बादशाह ने एक बार फिर अपने अनुभवी अधिकारियों की असफलता पर बड़ी नाराजगी जाहिर की और क्रोधवश उनकी ड्योढी बंद कर दी। उदयपुर में रहते हुए अकबर ने पहाड़ी भाग में चारों और अपने सैनिक दल भेज कर लोगों को आतंकित किया, लूटपाट की और प्रताप की टोह लगाने का प्रयास किया। किन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। मुगल सेना जिस ओर भी गई, लोग अपना स्थान छोड़कर घने वनीय भागों में चले गये। दो माह उदयपुर में रहकर भी अकबर को निराशा और असफलता ही हाथ लगी। अंत में हताश होकर अकबर उदयपुर से वांसवाड़ा होते हुए मालवा की ओर प्रस्थान करने की योजना बनाने लगा। उसने शाह फकरुद्दीन और जगन्नाथ कछवाहे को उदयपुर की रक्षा के लिये नियुक्त किया तथा सैयद अब्दुल्ला खाँ और राजा भगवंतदास को उदयपुर घाटी के प्रवेश मार्ग (देबारी) पर नियुक्त किया। उसके बाद वह बांसवाड़ा की ओर रवाना हुआ। अकवर ने उदयपुर विजय के प्रतीक स्वरूप सोने का 197
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