पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२००

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कोई खेती नहीं करेगा। जो किसान एक विस्वा जमीन पर भी खेती करके मुगल सरकार को हासिल देगा उसका सिर उड़ा दिया जायेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि सारा मैदानी प्रदेश उजाड़ हो गया, सर्वत्र घास उग आई, रास्तों पर कंटीले बुवूल खड़े हो गये और बस्तियों में जंगली जानवर वसने लगे। कर्नल जेम्स टाड ने लिखा है कि इस नीति से प्रताप ने राजपूताने के इस बगीचे को विजेताओं के लिये निरुपयोगी बन दिया। इसी समय 1579 ई. के जुलाई माह में राणा प्रताप ने अवसर देखकर दिवेर के रे पर कायम मुगल थाने पर हमला किया। युद्ध में राणा प्रताप की तलवार से बहलोल खाँ घोड़े सहित मारा गया। कुंवर अमरसिंह के बछे से बादशाह अकबर का काका थानेदार सुल्तान खाँ मारा गया। इस युद्ध में भामाशाह ने बड़ी वीरता का परिचय दिया। दिवेर से शाही सैनिक भाग गये और इस पर्वतीय प्रदेश के मार्ग पर प्रताप का कब्जा हो गया। अव प्रताप 1576-1579 ई. के तीन वर्षों के संकट-काल एवं मुगल-दवाव से उवर कर मुगल सैन्य दलों पर अपना दवाव बढ़ाने लगा था। वस्तुतः मेवाड़-मुगल संघर्ष में दिवेर का युद्ध एक परिवर्तनकारी विन्दु (Turning point) था और प्रताप की दिवेर-विजय उसकी 1586-87 ई. की मेवाड़ की संपूर्ण विजय का प्रथम सोपान था। प्रताप ने डूंगरपुर के राव आसकरण और बांसवाड़ा के रावल प्रतापसिंह को पुनः अधीन किया, जिन्होंने बादशाह अकबर के आक्रमण के समय अक्टूबर 1576 ई. में मुगल अधीनता स्वीकार कर ली थी। वागड़ प्रदेश के उक्त दोनों राज्य मेवाड़ के नवीन राजनैतिक केन्द्र छप्पन प्रदेश की सीमा पर ही स्थित थे, इसलिए भी प्रताप के लिये उनको अपने प्रभाव में रखना आवश्यक था। 1578-1579 ई. के दौरान प्रताप ने रावत भाण सारंगदेवोत को सेना सहित वागड़ की ओर भेजा । सोम नदी पर लड़ाई हुई। इस युद्ध में वागड़िया चौहानों ने बड़ी वीरता दिखाई । रावत भाण बुरी तरह घायल हुआ और उसका काका रणसिंह मारा गया। चौहान हार कर भाग गये और डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा के शासकों ने राणा प्रताप की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे मेवाड़ का दक्षिण-पश्चिमी सीमा वाला प्रदेश अधिक सुरक्षित एवं सुद्दढ़ हो गया और चावंड को स्थायी राजधानी बनाना सरल हो गया। 5. शाहबाज खाँ का तीसरा आक्रमण मेवाड़ की शक्ति को कुचलने में विशाल साम्राज्यी सेना और साधनों की बार-बार असफलता से अकवर दुःखी हो गया। अतएव एक वार फिर शाहबाज खाँ की क्षमता और साहस पर भरोसा करके उसको तीसरी बार 9 नवंबर,1579 ई. को सांभर मुकाम से ससैन्य मेवाड़ की ओर भेजा। उसने इस वार मालवा प्रदेश की ओर से मेवाड़ के जहाजपुर परगने से मांडलगढ़ और भैंसरोड़गढ़ होते हुए दक्षिण-पूर्वी दिशा से मेवाड़ के पर्वतीय भाग में प्रवेश किया। किन्तु उसके आक्रमण का कोई वांछित परिणाम नहीं निकला एवं पूर्व की कार्यवाहियों एवं घटनाओं की पुनरावृत्ति से अधिक कुछ नहीं हुआ । शाहबाज खाँ को पहिले की भांति मेवाड़ी सैनिकों के आकस्मिक धावों और लूटमार का शिकार होना पड़ा। शाहबाज खाँ ने मुगल थाने वापस कायम किये। किन्तु उसको राणा प्रताप के स्थान का पता नहीं मिला। इस समय ताराचंद मालवा से दण्ड वसूल करने रामपुरा गया हुआ था। शाहबाज खाँ ने उसको घेर लिया। ताराचंद जख्मी होकर निकल भागा और वस्सी में शरण ली,जहां रावत साईदास ने उसको पनाह दी। तीसरी बार भी शाहबाज खाँ बुरी तरह असफल रहा। बादशाह अकवर ने उससे अजमेर की सूवेदारी ले ली और उसका बड़ा अपमान हुआ । 200