पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२०४

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1 ठाकुर मुकुंददास को बदनोर, चूंडावत रावत मेघसिंह को बेगू, पंवार राव शुभकरण को बिजोलिया आदि बहाल हुए। कुछ को राणा प्रताप ने नये पट्टे दिये। बदनोर के कुंवर राठोड़ मनमनदास को देलवाड़ा, रावत भाणसिंह सारंगदेवोत को बाठरड़ा, सिसोदिया रावत कर्णसिंह (चित्तौड़ के शाके में शहीद सुप्रसिद्ध पत्ता का पुत्र) को आमेट और भ्राता शक्तिसिंह के पुत्र रावत भाणसिंह को भी डर की नवीन जागीरें प्रदान की गई। इस भांति मेवाड़ में जागीरों को पूरी तरह पुनर्व्यवस्थित कर दिया गया। मेवाड़ की सेना का पुनर्गठन किया गया। जागीरदारों को पुनः पूर्ववत् अपनी जागीरों की आय से अपनी-अपनी जमीयतें रखने का दायित्व दिया गया और सैन्य व्यवस्था का विकेन्द्रीकरण किया गया। किन्तु यह विकेन्द्रीकरण पूर्णतः केन्द्रीय योजना एवं व्यवस्था के अनुसार रहा । यद्यपि युद्ध बंद था किन्तु सैनिक व्यवस्था युद्ध की तैयारी के स्वरुप की थी। जागीरदारों की जमीयतें और भील सैनिक अलग-अलग पर्वतीय नाकों, दरौं तथा सामरिक महत्व के स्थानों पर नियुक्त रहे । युद्धकाल में प्रताप ने जिस केन्द्रीय सेना का गठन किया था, उसको विघटित नहीं किया, अपितु उसको नया स्वरूप एवं प्रशिक्षण प्रदान करके बड़े युद्ध के लिये सक्षम बनाया गया। राजधानी चावंड की सुरक्षा गुजरात, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और मालवा से सटा हुआ मेवाड़ का घना पर्वतीय एवं वनीय क्षेत्र छप्पन इलाका सुरक्षात्मक युद्ध-प्रणाली के लिये अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। प्रताप द्वारा इस भू-क्षेत्र को अपनी राजनैतिक एवं सैनिक गतिविधियों का केन्द्र बनाने के कारण सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण परिणाम निकले। मुगल सेना के मेवाड़ के पर्वतीय भाग पर उत्तरी-पूर्वी एवं पूर्वी भाग से आक्रमण निरर्थक हो गये, क्योंकि चावंड की ओर कुम्भलगढ़ एवं गोगुंदा की ओर से बढ़ने पर लगभग 80-90 मील की दूरी तथा उदयपुर की ओर से बढ़ने पर 60-70 मील की दूरी पूरी करने के लिये वनीय एवं पहाड़ी भाग में से होकर जाना पड़ता था जिसका खतरा मुगल सैनिक उठाने से डरते थे। पहाड़ी भागों में राजपूतों एवं भीलों के आकस्मिक आक्रमणों से निस्संदेह मुगल सैनिक एवं अधिकारी अत्यधिक आतंकित रहते थे। यही कारण है कि प्रत्येक आक्रमणकारी मुगल सेना कुछ ही महीनों में पहाड़ी भाग से निकलकर लौट जाती और पीछे जो सैन्यदल कतिपय गढ़नुमा स्थानों पर मुगल आधिपत्य के प्रतीक के रूप में नियुक्त किये जाते थे, वे स्वयं को किलों में कैद कर लेते थे और राणा के सैनिकों के आगमन की सूचना पाकर प्रायः बिना लड़े ही भाग जाते थे। जब शाहबाज खाँ ने 1579 ई. में और जगन्नाथ कछवाहा ने 1585 ई. में दक्षिण की ओर से चावंड पर आक्रमण किया तो रक्षात्मक कार्यवाही की दृष्टि से राजधानी को कुछ दिनों के लिये उत्तर-पश्चिम के भोमट क्षेत्र में स्थानांतरित करना आसान हो गया। भयग्रस्त मुगल सेनाओं के लिये उस ओर बढ़ना नितांत असंभव था और चावंड में अधिक दिनों तक ठहरना भी कठिन था। अतएव वे दुर्दशाग्रस्त होकर वापस लौटी । जैसा कि स्पष्ट, है, इन सेनाओं द्वारा इस प्रकार के खतरे उठाने के पीछे अकबर का यह उद्देश्य रहता था कि वे प्रताप को जिन्दा या मुर्दा पकड़ लावें, क्योंकि प्रताप के जीवित रहते, मेवाड़ को अधीन करना असंभव था। अकबर प्रताप के विरुद्ध केवल एक बड़ी सैनिक कार्यवाही नहीं कर सका, वह थी मेवाड़ के सारे पहाड़ी इलाके का एक साथ चारों ओर से घेरा डालकर सभी ओर से आक्रमण करना और सभी ओर से मार्ग बन्द कर देना। किन्तु लगभग 300 मील की परिधि वाले इस भू-क्षेत्र को घेर कर सैनिक कार्यवाही करने का अर्थ था कई लाख सैनिकों का एक साथ उपयोग ।. यह अकबर के लिये दुष्कर कार्य था और उसने कभी उस पर गंभीरता से विचार नहीं किया। 204