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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२०६

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'लिये लिखा । टॉड के इस कथन के साथ पृथ्वीराज राठौड़ और प्रताप के मध्य पत्र-व्यवहार वाली जनश्रुति जुड़ गई। जनश्रुति के अनुसार प्रताप ने अपने उत्तर में पृथ्वीराज को तीन दोहे लिख कर भेजे जिनका आशय था कि 'प्रताप के मुख से तो अकवर तुर्क ही कहलाएगा, सूर्योदय पूर्व में ही होगा, प्रताप की तलवार यवनों के सिरों पर ही होगी। तुम (पृथ्वीराज) सहर्ष अपनी मूंछों पर ताव दो।' इस पर पृथ्वीराज ने प्रताप की प्रशंसा में एक गीत लिखा। इसी प्रकार की एक अन्य जनश्रुति प्रचलित हुई। प्रताप जब भीपण आर्थिक संकट और अभावों से घबरा गया तो उसने मेवाड़ त्याग कर सिंध की ओर चले जाने का निर्णय किया। उस समय भामाशाह बड़ी धन-राशि एवं अशर्फिया र उपस्थित हुआ, जो उसके परिवार की संगृहित संपत्ति थी और उसने वह धन राणा प्रताप को भेंट किया। इतनी बड़ी धन-राशि को प्राप्त कर प्रताप ने देश-त्याग का विचार छोड़ दिया। ये कथाएँ कपोलकल्पित हैं और मात्र राणा प्रताप के साहस, सहनशीलता और धैर्य की पराकाष्ठा दर्शाने की दृष्टि से कल्पित की गई हैं। इतिहासकार गौही ओझा ने लिखा है "इस प्रकार का सम्पूर्ण कथन कपोलकल्पना मात्र है, क्योंकि महाराणा को कभी ऐसी कोई आपत्ति नहीं पड़ी थी। उत्तर में कुम्भलगढ़ से लगाकर दक्षिण में ऋषभदेव से परे तक लगभग 90 मील लम्बा और पूर्व में देबारी से लगाकर पश्चिम में सिरोही की सीमा तक 70 मील चौड़ा पहाड़ी प्रदेश, जो एक के पीछे एक पर्वत श्रेणियों से भरा हुआ है, महाराणा के अधिकार में था। महाराणा तथा सरदारों की स्त्रियाँ एवं बाल-बच्चे आदि इसी सुरक्षित प्रदेश में रहते थे । आवश्यकता पड़ने पर उनके लिये अन्न आदि लाने के लिये गोड़वाड़, सिरोही, ईडर और मालवा की तरफ के मार्ग खुले हुए थे। उक्त पहाड़ी प्रदेश में जल तथा फल वाले वृक्षों की बहुतायत होने के अतिरिक्त बीच-बीच में कई जगह समान भूमि आ गई है, वहाँ सैकड़ों गांव आबाद हैं। वहां कई ऐसे पहाड़ी किले तथा गढ़ भी बने हुए हैं और पहाड़ियों पर हजारों भील बसते हैं। वहां मक्का, चना, चावल आदि अन्न अधिकता से उत्पन्न होते हैं और गाय, भैंस आदि जानवरों की बहुतायत के कारण घी, दूध आदि पदार्थ आसानी से पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। ऐसे देश का सहारा होने से ही महाराणा अपनी स्वतंत्रता को स्थिर रख सका। वह अपने सरदारों के साथ विस्तृत पहाड़ी प्रदेश में निडर रहता था, और उसके स्वामिभक्त एवं वीर प्रकृति के हजारों भील, जो बंदरों की तरह पहाड़ लांघने में कुशल होते थे, शत्रु सेना के हलचल की 40-50 मील दूर तक की सूचना 7-8 घंटों में उसके पास पहुंचा देते थे, जिससे वह शत्रु पर कहां हमला करना ठीक होगा यह सोच कर अपने राजपूतों सहित पहाड़ों की ओर से घात लगाये रहता और मौका पाते ही उन पर टूट पड़ता था। इसी से अकबर की सेना ने पहाड़ो में दूर तक प्रवेश करने का एक बार भी साहस नहीं किया। राणा प्रताप यदि ऐसी विपत्ति में होता तो अबुलुफजल अथवा अन्य फारसी तवारीख लेखक उसके संम्बन्ध में अवश्य बढ़ा-चढ़ा कर लिखते और महाराणा द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार करने हेतु पत्र लिखने वाली बात अबुलफजल से कभी छिपी नहीं रहती। वस्तुस्थिति यह है कि प्रताप के परिवार तथा सरदारों आदि के परिवारों को खाने-पीने की दृष्टि से कभी कोई अभाव नहीं रहा तथा उनके सुरक्षित निवास का भी पूरा प्रबन्ध रहा। मेवाड़ के पर्वतीय भोमट एवं छप्पन इलाके के घने दुर्गम स्थलों में यत्र-तत्र आज भी प्राचीन भवन एवं किलों के खंडहर मिलते हैं जो राणा प्रताप के परिवार तथा स्त्रियों-बच्चों के समय-समय पर निवास-स्थल रहे। ऐस स्थलों में धोलिया, मचीन, रोहिड़ा, ढोलान, उबेश्वर, आवरगढ़ (कमलनाथ) प्रधान हैं। ऊंचे शिखर पर स्थित आवरगढ़ के भवनों के विस्तृत खंडहर चावंड की भांति विशाल हैं और पहाड़ के निचले भाग से ऊपरी , 206