" 1. प्रताप व इतिहासकार भारतीय इतिहास के विख्यात स्वातन्त्र्य योद्धा महाराणा प्रताप का ऐतिहासिक मूल्यांकन इतिहासकारों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से किया गया है, जिससे प्रताप के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मत सामने आये हैं। एक बात में लगभग सभी इतिहासकार एक मत हैं कि महाराणा प्रताप इतिहास में अटल प्रतिज्ञापालक, अदम्य स्वाभिमानी एवं स्वतंत्रता-प्रेमी तथा महान त्यागी एवं बलिदानी योद्धा हो गया है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा का मत है- “यह स्वीकार्य है कि अकबर एक महान् और उदारचेता सम्राट् था, जिसने देश को राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से एकताबद्ध करने की आदर्श नीति का अनुसरण किया। प्रताप का एकता से अलग रहना उस महान् कार्य पर एक प्रकार का बड़ा आघात था। उस सीमा तक प्रताप की नीति उसके देश के लिए हानिकारक थी। यदि उस समय प्रताप मुगल-व्यवस्था में शरीक हो जाता तो वह अपने देश को विनाश और बरबादी से बचा सकता था। उसका दीर्घकालीन संघर्ष उस दिन को आने से नहीं रोक सका जबकि उसके पुत्र अमरसिंह के काल में मेवाड़ मुगल साम्राज्य के अधीन हो गया। यदि मेवाड़ को वही अवसर पहले मिला होता तो उसका पिछड़ापन मिट गया होता आश्चर्य की बात यह है कि उपरोक्त मत प्रकट करने के साथ-साथ डॉ. शर्मा यह भी कहते हैं- “किन्तु प्रताप का नाम हमारे देश के इतिहास में स्वतंत्रता के एक महान् सैनिक के रुप में अमर रहेगा जिसने संघर्ष के इस नैतिक स्वरूप पर अपना ध्यान केन्द्रित किया और भौतिक लाभ अथवा हानि की चिन्ता किए बिना लड़ता रहा। उसने हिन्दुओं के गौरव को कायम रखा। जब तक यह जाति जीवित है, वह इस बात के लिये चिरस्मरणीय रहेगा कि उसने एक विदेशी के विरुद्ध संघर्ष में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। स्वन्त्रता के एक महान् योद्धा के रूप में आज भी वह करोड़ों लोगों के लिये आदर्श व आशा का स्त्रोत बना हुआ है।" डॉ. गोपीनाथ शर्मा के इन परस्पर विरोधी तों से पूर्ण मत के अनुयायी कई और विद्वान् भी हैं। डॉ. रघुबीरसिंह के मतानुसार “स्वाधीन भारत के इस नये वातावरण में तत्कालीन ऐतिहासिक धारणाओं का राष्टीय दृष्टिकोण से निष्पक्ष अनुदर्शन करने पर राणा प्रताप के विशिष्ट आदर्श की संकीर्णता और उसकी विरोधपूर्ण नकारात्मक नीति में हर प्रकार की रचनात्मकता का पूर्ण अभाव स्पष्ट हो जाता है।" इसी बात को बदलकर श्री राजेन्द्रशंकर भट्ट इस भांति कहते हैं- “आदर्श चाहे कितना संकीर्ण हो, उसमें आस्था रखकर उसके लिये सर्वस्व बलिदान करने वाले कभी नहीं मरते।” डॉ. श्रीवास्तव कहते हैं कि भूतकाल में वर्तमान युग की धारणाओं और विचारों को पढ़ने से यह प्रांति उत्पन्न हुई है। उनका कहना है कि प्रताप के तथाकथित असहयोग के लिए प्रताप की अपेक्षा अकबर अधिक दोषी था जो प्रताप के मुगल दरबार में हाजिरी देने की बात पर अधिक अडिग रहा। अकबर की हठ के कारण युद्ध चलता रहा और अमरसिंह के काल में जहांगीर द्वारा मेवाड़ के राणा को मुगल दरबार में हाजिर होने से मुक्त रखने की शर्त स्वीकार करने पर ही शांति हुई। डॉ. गोपीनाथ शर्मा के तर्क को भ्रमपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा है कि 1615 ई. में अमरसिंह को जहांगीर से सम्मानपूर्ण सन्धि की जो शर्ते मिली, वे प्रताप के 22 वर्षों और उसके बाद अमरसिंह के 18 वर्षों के लम्बे संघर्ष के कारण ही मिली। यह सम्मान आमेर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, डूंगरपुर आदि राज्यों को नहीं मिला। डॉ. श्रीवास्तव ने यह भी लिखा है कि प्रताप के पक्ष के सम्बन्ध में आधुनिक इतिहासकारों की समझ सही नहीं है। वह 1572-76 ई. के दौरान इस शर्त पर अधीनता स्वीकार करने को तैयार था कि उसको मुगल दरवार में हाजिरी देने से मुक्त रखा जाये । श्रीवास्तव कहते हैं- “प्रताप को अकवर महान् के 209
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