पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

Imperial Confederaton के स्वरूप को कितना ही महत्त्व दें वह भारतीय परम्पराओं एवं परिस्थितियों के अनुरूप “राज्य संघ” नहीं था। अकबर के साम्राज्य का आधार केन्द्रीय निरकुंश राज्य सत्ता, स्वेच्छाचारी शासन और उसमें सम्मिलित विभिन्न राज्यों द्वारा अपनी स्वतन्त्रता का पूर्ण समर्पण था। वीकानेर राजघराने से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक महत्व का समकालीन ग्रंथ 'दलपतविलास' मुगल दरवार में सेवारत राजपूत राजाओं की असहाय एवं अपमानजनक स्थिति की वास्तविकता को प्रकट करता है। लगभग सभी राजपूत राजा मनसवदार बनाकर अपनी सेनाओं सहित अपने राज्यों से दूर मुगल अभियानों में भेज दिये जाते थे। उनके राज्यों के भीतर और मुगल दरवार में निरंतर ऐसे षड़यन्त्र चलते रहते थे, जिससे राजपूत राज्यों की आन्तरिक स्वायत्तता नाम मात्र की रहती थी। बीकानेर, जोधपुर आदि राज्यों की घटनाएं यह भी प्रकट करती हैं कि जब कोई भी राजपूत राजा थोड़ा बहुत स्वाभिमानी रुख अपनाने की चेष्टा करता, तो उसके लिये अपना राज्य खोने का खतरा पैदा हो जाता था। यह कथन सही नहीं है कि राजपूताने के राजाओं ने मुगल अधीनता विश्वास एवं खुशी से स्वीकार की, अपितु आंतरिक गृहकलह, शक्तिहीनता और राज्य पर अपने अधिकार को बचाने की दृष्टि से राजपूत राजाओं ने अकबर की अधीनता स्वीकार की। अकवर ने भी उनकी स्थिति का लाभ उठाकर अपनी भेदनीति एवं सैन्य-शक्ति से उन्हें झुका दिया। राजपूतों के ग्रह-कलह एवं अकवर की प्रलोभन नीति के कारण राजपूत सरदारों तथा राजाओं में मुगल दरवार में जाने की होड़ लग गई। अकवर ने राजपूत भावनाओं तथा उनके स्वार्थों को ध्यान में रखते हुए अपनी राजपूत कूटनीति निर्धारित की । एक ओर अकवर के अधीन राजपूत राजाओं के पास उनके राज्य रहने दिये और उनके धार्मिक विश्वासों का आदर किया,दूसरी ओर उनमें दरवारी प्रलोभनों के लिये तथा वादशाह का कृपा-पात्र बनने के लिए गौरवविहीन प्रतिस्पर्धा पैदा की । अंत में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अकवर की कुटिल राजनीति ने राजपूत संघ को छिन्न भिन्न कर दिया, राजपूत जाति को पंगु व स्वाभिमान शून्य बना दिया । वस एक प्रताप ही बच पाया। 6. क्षत्रिय धर्म की रक्षा हेतु संघर्ष राजस्थानी साहित्य ने महाराणा प्रताप को एक आदर्शवीर के रूप में प्रस्तुत किया है। उसने प्रताप को क्षत्रियत्व के रक्षक के रूप में देखा है। भारत की क्षत्रिय जाति की सदा से कुछ आदर्श परम्पराएं रहीं, जिनकी राजस्थान के राजपूतों में मान्यता रही और वे उनका पालन करते रहे । वंश गौरव एवं आत्मसम्मान की रक्षा, विदेशी दासता के विरुद्ध एकता और संघर्ष, स्वतन्त्रता-संघर्ष में सर्वस्व त्याग और वलिदान, प्रतिज्ञा-पालन, चारित्रिक-उच्चता, शरणागत को अभयदान आदि वातें क्षत्रियत्व के सिद्धान्त की मुख्य आधार थीं। प्रताप के समकालीन राजस्थानी कवियों ने प्रताप को सच्चा क्षत्रिय और क्षात्र-धर्म का रक्षक माना है। जवकि अकवराधीन राजपूत राजाओं को उन्होंने अपने क्षुद्र स्वार्थों, नैतिक पतन और विलासिता के कारण पराधीनता स्वीकार करने के लिये कोसा है। डॉ. त्रिपाठी, डॉ. शर्मा, डॉ. रघुवीरसिंह आदि का यह मत भ्रामक है कि प्रताप के आदर्शों में मात्र सिसोदिया लोगों के गौरव की रक्षा की ही भावना रही । उनका यह मत तत्कालीन विचारकों के मत से मेल नहीं खाता, जिन्होंने प्रताप के संघर्ष को न केवल मेवाड़ की स्वतन्त्रता और सिसोदिया वंश की आन-बान की रक्षा का संघर्ष माना है वल्कि प्रताप को विदेशी मुगलों के खिलाफ देश की रक्षा के लिये लड़ने वाले, क्षात्र धर्म की रक्षा के लिये संघर्ष करने वाले तथा स्वाभिमान और स्वतन्त्रता के लिये संघर्ष करने वाले योद्धा के रूप में देखा है। यही कारण है कि एक ओर ग्वालियर का तंवर राजा रामसाह और उसके परिजन तथा पठान हकीम खाँ सूर जैसे योद्धा प्रताप के पक्ष में युद्ध करते हुए मारे गये, विभिन्न खांपों के राजपूत प्रताप 212