— की सेना में एकत्रित हुए, सारे राजस्थान से स्वतन्त्रताप्रिय राजपूत, चारण आदि मेवाड़ में आए है और इतना ही नहीं, प्रताप के इस संघर्ष में मध्यकालीन युद्धों में सामान्यतः निष्क्रिय और उदास रहने वाली जनता तमाम प्रकार का त्याग करके प्रताप को अटूट और अदम्य वफादारी के साथ सहयोग प्रदान करती है, तो दूसरी ओर अकबर के अधीन हो गये राजपूतों एवं अन्य लोगों में भी प्रताप के संघर्ष के प्रति हमदर्दी और प्रशंसा की भावना मिलती है। मुगल-विरोधी दीर्घकालीन संघर्ष में प्रताप ने अन्त में जो सफलता प्राप्त की, वह भी इतिहास का एक अनूठा उदाहरण है। अकबर की सम्पूर्ण शक्ति और कूटनीति प्रताप को कुचलने में असफल रही और अन्ततः हल्दीघाटी-युद्ध के दस वर्ष बाद 1586 ई. में अकबर निराश होकर मेवाड़ को स्वतन्त्र छोड़ दिया। 7. प्रताप और अकबर हम आज आधुनिक राष्टीय प्रजातन्त्रीय युग में रह रहे हैं। आज से लगभग चार सौ वर्ष पुरानी घटनाओं और कार्य-कलापों में हम वर्तमान युग की मान्यताओं के दर्शन नहीं कर सकते और यदि ऐसा करते हैं तो हम इतिहास के साथ न्याय नहीं करेंगे। डॉ. रघुबीरसिंह जब यह कहते हैं कि राष्ट्रीय दृष्टिकोण से निष्पक्ष अनुदर्शन करने पर राणा प्रताप के विशिष्ट आदर्श की संकीर्णता और उसकी विरोधपूर्ण नकारात्मकता की नीति में रचनात्मकता का अभाव दृष्टिगत होता है, अथवा जब डॉ..श्रीवास्तव यह कहते हैं कि अकबर के मुकाबले में प्रताप में रचनात्मक योग्यता, दृष्टि की व्यापकता और राजनैतिक अन्तर्दृष्टि का अभाव था, तो उनकी यह मान्यता ऐतिहासिक सन्दर्भ को भुला देती है। प्रताप के कार्यों को युग के सन्दर्भ में देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने एक विशिष्ट आदर्श, प्रयोजन और उद्देश्य को लेकर संघर्ष किया। वह आदर्श केवल मेवाड़ तथा सिसोदिया वंश की सीमाओं में बंधने वाला आदर्श नहीं था अपितु उसका स्वरूप व्यापक था और उसमें मूल मानवीय भावनाओं और उच्च नैतिक मूल्यों का समावेश था। प्रताप भूतकाल की ऐतिहासिक घटनाओं से अवगत था और उस काल का राजनैतिक वातावरण भी उसके सन्मुख स्पष्ट था। वह अकबर के साथ समझौते की सीमा तक जाना चाहता था, किन्तु भविष्य भी उसके सन्मुख झांक रहा था। वह उदारता, सहिष्णुता, नैतिकता और चारित्रिक उच्चता की दृष्टि से आदर्श व्यक्ति था। इन गुणों में वह अकबर से बढ़ा-चढ़ा था । उस काल में यदि बादशाह अकबर विशाल सल्तनत, सैनिक शक्ति और वैभवशालिता (Temporal power) में अपना सानी नहीं रखता था तो चरित्र की उज्ज्वलता और नैतिक आदर्शों की उच्चता (Spiritval qualitier) में राणा प्रताप के समकक्ष कोई नहीं था। अकबर उदारता एवं सहिष्णुता के वातावरण के निर्माण की दृष्टि से चेष्टा कर रहा था, किन्तु अकबर जिस घेरे में बन्द था वहां क्या ये मूल्य स्थायी रह सकते थे। प्रताप का विरोध नकारात्मक नहीं था बल्कि उसका संघर्ष स्वतन्त्रता, स्वायत्तता और आत्मगौरव के मूल्यों की रक्षार्थ रचनात्मक संघर्ष था । उसने अकबर की उदारता और सहिष्णुता की नीतियों पर कभी आघात नहीं किया और उसने स्वयं कभी अनुदार और कट्टर व्यक्ति की भांति व्यवहार नहीं किया । उसका संघर्ष रक्षात्मक था, उन बातों के लिये, जो अकबर की निरकुंश सत्ता स्वीकार नहीं करना चाहती थी। अकबर की निरंकुश सत्ता में भावी विघटन और कट्टरता के बीज छिपे हुए थे, जो आगे जाकर पुनः फूटे । भारतवर्ष की एकता सदैव अनेकता में एकता (Unity in Diversity) की मान्यता में रही। अकबर ने राजपूताने के राजाओं से जो संधि की, उसमें उसकी यह मान्यता नहीं रही। उसने राजपूताने में फूट के बीज बोये, राज्यों को कमजोर किया और उनके परंपरागत गौरव एवं विशिष्टताओं पर आघात किया, अन्यथा अकबर और प्रताप के बीच सम्मानजनक संधि असम्भव नहीं होती। 213
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