खंडहर यह बताते हैं कि संपूर्ण निर्माण किलेनुमा था, खंडहरों में आज भी तलघर दृष्टव्य हैं। इसी प्रकार के प्रतापकालीन भवनों के खंडहर आवरगढ़-कमलनाथ, उभयेश्वर, कमोल, ढोलाण आदि कई पर्वतीय स्थानों पर देखने को मिलते हैं। 1615 ई. में राणा अमरसिंह और बादशाह जहांगीर के मध्य संधि होने के वाद उदयपुर को मेवाड़ की राजधानी बनाया गया। उसके बाद चावंड के भवन उपेक्षित रहकर खंडहर होते गये। यहां के सुन्दर गवाक्ष, द्वारों की डेलियां, चौपाडों के खम्भे, छज्जे आदी उखाड़कर लोग मनमाने तौर पर अपने भवनों में लगाते रहे, निकटवर्ती सराड़ा ग्राम की कचहरी में भी इन अवशेषों का उपयोग किया गया है, जो वहां देखे जा सकते हैं। उसी काल में 1593 ई. के लगभग भामाशाह ने जावरमाता का मंदिर बनवाया तथा सादड़ी गोड़वाड़ में ताराचंद द्वारा बरादरी और वावड़ी बनाये गये, जो आज भी दृष्टव्य हैं। (ii) विद्या, साहित्य एवं कला को प्रोत्साहन इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रताप के शासन काल में भवन निर्माण के अतिरिक्त अन्य कलाओं को भी प्रोत्साहन मिला, जिनके प्रमाण अब सामने आ रहे हैं। प्रताप के काल में चक्रपाणि मिश्र नामक संस्कृत भाषा का विद्वान लेखक हुआ, जिसके तीन ग्रंथ राज्याभिषेक-पद्धति, मुहूर्तमाला एवं विश्ववल्लभु प्रकाश में आये हैं। ये ग्रंथ क्रमशः गद्दीनशीनी की शास्त्रीय पद्धति, ज्योतिष शास्त्र और उद्यान-विज्ञान के विषयों से सम्बन्धित हैं। इसी समय जीवंधर ने 'अमरसार' संस्कृत ग्रंथ की रचना की। प्रताप के राज्यकाल में गोड़वाड़ इलाके के सादड़ी ग्राम में, जहां प्रताप की ओर से भामाशाह का भाई ताराचंद प्रशासक नियुक्त था उसकी प्रेरणा से 1598 ई. में हेमरल सूरी द्वारा "गोरा बादल कथा पद्मनी चउपई" काव्य-ग्रंथ की रचना की गई। उस काल में चावंड में निसारदी (नसीरूद्दीन) नामक चित्रकार हुआ, जिसके 1605 ई. के रागमाला के चित्र प्रकाश में आये हैं। निसारदी की चित्रशैली चावंड-चित्रशैली के नाम से प्रसिद्ध हुई है। मेवाड़ चित्रशैली को समृद्ध करने में इस शैली का बड़ा योगदान रहा। 1586 ई. के बाद कृषि और व्यापार में भारी उन्नति हुई उसके साथ-साथ स्थापत्यकला, चित्रकला, साहित्य-सृजन आदि प्रवृत्तियों को बड़ा प्रोत्साहन मिला। 8. धर्म-समभाव की राज्यनीति (i) प्रताप की धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता उनकी मान्यता थी कि उनके पूर्वजों को मेवाड़ का राज्य एकलिंग किया था। यह राज्य एकलिंगजी का है और महाराणा उनके दीवान के तौ. करते हैं। अतएव भगवान एकलिंग की पूजा-अर्चना करना महाराणा था। किन्तु उससे मेवाड़ के महाराणाओं में कभी भी धार्मि भेदभाव की भावनाएं उत्पन्न नहीं हुई। उन्होंने सभी धर्मों का और राज्य की ओर से समय-समय पर उनको आवश्यक प्रकार के धर्म मानने वालों को न केवल अपने विश्वास आचरण की स्वतंत्रता थी, अपितु उनको राज्य-प्रशासन के भेदभाव दिया जाता था। वैष्णव, शैव, शाक्त, जैन आदि धर्मावलंबियों को भी समान अधिकार और दायित्व मिले हुए थे मेवाड़ के शासक दिल्ली के मुसलमान सुल्तानों से लड़ते आये थे तीन शताब्दियों से मालवा और गुजरात के मुसलमान बादशाहों से चलते रहे और यदाकदा मुसलमान शासकों की ओर से की गई प्रदान 220
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