पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२२६

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. भारतीय इतिहास में महाराणा प्रताप का स्थान प्रारम्भिक कठिनाइयाँ राणा प्रताप जब सिंहासन पर बैठे उस समय मेवाड़ का मैदानी भाग तथा उसकी परंपरागत राजधानी चितौड़गढ़ मुगल साम्राज्य के अधीन थी और उसके पास केवल 300 मील की परिधि वाला पहाड़ी भू-क्षेत्र ही बचा था। 1568 ई. के चितौड़ के शाके में मेवाड़ के अधिकांश नामी सूरमा राजपूत सरदार खेत रहे, इसके फलस्वरूप प्रताप के पास इने गिने पुराने अनुभवी योद्धा बचे थे, शेष नई पीढ़ी के सरदार थे, जिनके पास राजनीति और रणनीति का अनुभव नहीं था तथा अकबर द्वारा चितौड़ के भीषण नरसंहार के बाद उनकी संख्या भी बहुत कम थी और व्यवस्थित सैन्य संगठन भी नहीं था। चितौड़ छूटने के कारण राज्य का कोष खाली था और आय के साधन कम हो गये थे। पहाड़ी भाग में कृषि, उद्योग एवं व्यापार बहुत सीमित था। उस समय समूचे पर्वतीय भाग में रक्षात्मक ढंग के एक सव्यवस्थित प्रशासन की भी कमी थी। 1576 से 1585 ई. के दौरान मेवाड़ पर छ: बार मुगल सेना के आक्रमण हुए। 1576 ई. में हल्दीघाटी युद्ध की असफलता से क्षुब्ध होकर उसी वर्ष स्वयं बादशाह अकवर अपने प्रधान सेनापतियों को साथ लेकर मेवाड़ पर चढ़ आया और दो माह उदयपुर में रहा। उसके बाद 1580 ई. तक प्रतिवर्ष आक्रमण होते रहे। 1584 ई. में फिर मुगल सेना चढ़ आई। इन आक्रमणों में अकबर द्वारा सबसे योग्य सेनापतियों, सैनिकों तथा भरपूर धन एवं शस्त्रास्त्रों का उपयोग किया गया। अकबर ने प्रताप को जीवित पकड़ने अथवा मारने का दृड़ संकल्प कर रखा था। इन स्थितियों में साधारण व्यक्ति भयभीत एवं आतंकित होकर अपने जीवन की रक्षा के लिए जंगलों और पहाड़ों में एक भगौड़े की भांति मारा-मारा फिरता, उसकी सूझ-बूझ मारी जाती तथा शक्ति नष्ट हो जाती और अन्ततः वह या तो मर मिटता या आत्म-समर्पण कर देता अथवा पकड़ा जाता। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। उसके विपरीत 19 जनवरी,1597 ई. को जब प्रताप ने अंतिम सांस ली, उस समय न केवल मेवाड़ की स्वतंत्रता अक्षुण्ण थी, अपितु प्रताप ने चित्तौड़गढ़ एवं मांडलगढ़ के कुछ क्षेत्र को छोड़कर 1568 ई. में मुगलों द्वारा अधीन कर लिया गया मेवाड़ का शेष मैदानी भाग वापिस अपने अधिकार में ले लिया था प्रशासनिक, सैनिक एवं आर्थिक दृष्टि से मेवाड़ एक सुदृढ़ एवं समृद्ध राज्य बन चुका था। प्रताप का व्यक्तित्व मुगल साम्राज्य विरोधी स्वतंत्रता की लड़ाई में प्रताप के चरित्र एवं व्यक्तित्व के सुनातन महत्व के वे गुण एवं मूल्य उजागर हुए जो किसी भी राष्ट्र एवं समाज के लिये गौरव की बात होते । स्वतंत्रता संघर्ष में उसने अपना सर्वस्व होम दिया। महलों के सुख-वैभव को त्याग कर उसने पर्वतीय एवं वनीय भाग के कष्टमय एवं सादगी के जीवन को अपना लिया, जिसमें उसके परिवार तथा सरदार और अधिकारीवर्ग आदि सभी ने उसका अविचल रूप से साथ दिया। प्रताप की निः स्वार्थपरता, त्याग एवं बलिदान की भावना ने संघर्षरत लोगों को सभी प्रकार के कष्टों एवं अभावों का किसी भी प्रकार के मानसिक क्लेश अथवा विरोध के बिना, सामना करने का पाठ पढ़ाया। लोगों में निजी स्वार्थ एवं हित-साधन को त्याग कर सामूहिक हितों के लिये कार्य करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हुई। प्रताप का सादगीपूर्ण जीवन, उदारतापूर्ण व्यवहार, सभी के प्रति उसकी कर्तव्य- भावना, सामान्यजन के कष्टों एवं हितों को सर्वोपरि महत्व देने की उसकी प्रवृति, ये सब बातें उसके साथियों, सहयोगियों एवं आम लोगों के लिये आदर्श बन गयी। उसने जाति, धर्म, सम्प्रदाय की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर सच्चे राजधर्म का पालन किया। 226