का स्थान माग दया उस पास केवल 300 के शाके में मेवाड़ के के पास इने गिर्ने न राजनीति और के बाद उनकी छूटने के कारण कृषि, उद्योग परहवार व्य होकर पर चढ ते रहे। योग्य इन ta आज से चार सौ वर्ष पहिले जन-नेतृत्व की दृष्टि से राणा प्रताप की उपलब्धि निः संदेह इतिहास की एक अनूठी प्रेरणास्पद घटना है। प्रताप का यह संघर्ष, मूलतः तत्कालीन भारतीय समाज के राजनैतिक नेतृत्व के स्वार्थपरतापूर्ण, भोगवादी एवं पतित मनोवृत्ति के खिलाफ संघर्ष था जो उनको अपना स्वाभिमान और स्वतंत्रता का समर्पण करके सुख, वैभव एव ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये पराधीनता और दासता स्वीकार करने के लिये अग्रसर कर रही थी। स्पष्ट है कि, प्रताप पर उन लुभावने प्रलोभनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 2. महाराणां का सर्व धर्म-समभाव उस समय जबकि अकबर की धार्मिक सहिष्णुता की नवीन नीति के बावजूद मुगलाधीन प्रदेशों में धार्मिक कट्टरता और अत्याचार की कतिपय घटनाएं यत्र-तत्र हो रही थीं, राणा प्रताप ने सभी धर्मों का समान रूप से आदर करने की अपनी मूल नीति नहीं छोड़ी। उसके राज्य में अथवा उसके लोगों द्वारा किया गया एक भी ऐसा कृत्य नहीं मिलता, जिसमें धार्मिक असहिष्णुता की गंध आती हो। उसके प्रशासन, सेना, दरबार अथवा संरक्षण में सभी जातियों, धर्मों एवं संप्रदायों के योग्य लोगों को उचित पद एवं उत्तरदायित्व मिले हुए थे। पठान हकीम खाँ सूर उसकी सेना का विश्वसनीय उच्चाधिकारी था, जिसको हल्दीघाटी की लड़ाई में मेवाड़ की सेना के हरावल भाग में रहने का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व दिया गया था और जिसने युद्ध के दौरान राणा प्रताप की रक्षा करने और उसको युद्ध मैदान से बाहर निकलवाने में बड़ी अह भूमिका अदा की और स्वयं लड़ता हुआ मारा गया। उसी भांति निसारदी नामक चित्रकार को चावंड राजधानी में राणा प्रताप और राणा अमरसिंह का संरक्षण मिला, जिसके रागमाला के चित्र चावंड- चित्रशैली के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। राणा प्रताप ने इसी प्रकार जैन, वैष्णव, शैव आदि विभिन्न मतावलंबियों, आदिवासी, भील-मीणों को अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में उचित उत्तरदायित्व दिये। राणा प्रताप शैव मतावलंबी थीं। सिसोदिया राजवंश की मान्यता के असली शासक स्वामी भगवान एकलिंग शिव थे और राणा उनके दीवान के तौर पर मेवाड़ का शासन करते थे। इसके अतिरिक्त मध्ययुगीन रीति-व्यवहार के अनुसार राणा का दैनिक जीवन धार्मिक कृत्यों से पूर्ण होता था और राज्यारोहण आदि के कार्य हिन्दू-धर्म-विधि से किये जाते थे, किन्तु उससे राणा की धर्म समभाव राजनीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। महाराणा की सैनिक सफलताएं राणा प्रताप गहन सूझ-बूझ और दूरदर्शिता रखता था। प्रताप ने पर्वतीय भू-भाग की संपूर्ण जन-शक्ति और कारोबार को सामरिक आवश्यकता के आधार पर ढाला। उसने असैनिक जातियों के लोगों ब्राहमणों, जैनियों आदि को भी सैनिक कार्यों में लगाया। पहाड़ी मूल निवासी बहुसंख्यक भीलों एवं मीणों का उसने कई प्रकार से उपयोग किया। पहाड़ी भाग के सभी गुप्त स्थानों, कंदराओं आदि की उनको जानकारी थी। प्रताप ने उनकी इन विशेषताओं का बड़ी खूबी के साथ अपनी रणनीति की योजना में उपयोग किया। पहाड़ों में गुप्त स्थानों से निकलकर मुगल सेना पर अचानक हमला करके तीव्रगति से वापस लौट जाने की छापामार-युद्ध-प्रणाली में आदिवासी लोग विशेष उपयोगी सिद्ध हुए। इसके अतिरिक्त राजपरिवार तथा अन्य परिवारों की स्त्रियों एवं बच्चों की सुरक्षा करने, संकटकाल में उनको अन्य सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने, भारी सामान पहाड़ों पर चढ़ाने, शत्रु की गतिविधि की तेजी से पूर्व सूचना देने, राज्यादेश, संदेश एवं सूचनाएं एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने, गुप्तचरों का कार्य करने, कंदराओं आदि में धन एवं शस्त्रास्त्रों की सुरक्षा करने आदि विभिन्न प्रकार के कार्यों में इन लोगों को सफलतापूर्वक लगाया गया। अनुसार मेवाड़ भाग के 227 III
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