विद्रोह का कुछ तो कारण जरूर रहा होगा। लेकिन यदि राणा अरिसिंह दूरदर्शी और सुयोग्य शासक होता तो सामन्तों तथा सरदारों के विद्रोह करने की नौवत न आती। परन्तु उसमें योग्यता का भी बहुत अभाव था, इसीलिए उसके विरुद्ध सामन्तों और सरदारों ने विद्रोह किया। मनुष्य के अनुचित व्यवहारों के कारण उसके विरोधियों की संख्या बढ़ती है। राणा अरिसिंह ने अपने रूखे स्वभाव के कारण अपने सरदारों को और राज्य के शक्तिशाली व्यक्तियों को अपना शत्रु बना लिया था। उसने मेवाड़ के प्रधान सरदार सादड़ी के राजा को उसके पद से अलग कर दिया था। जिस झाला सरदार ने हल्दीघाटी के भयानक युद्ध क्षेत्र में प्रताप के प्राणों की रक्षा करके अपने प्राण उत्सर्ग किये थे, राणा अरिसिंह ने उसके प्रति भी कृतज्ञ बने रहने की कोशिश नहीं की । उसने इस प्रकार के अनुचित व्यवहार दूसरे लोगों के साथ भी किये थे। देवगढ़ के राजा यशवंत सिंह के साथ भी उसने इसी प्रकार का असम्मानपूर्ण व्यवहार किया। यशवंतसिंह ने प्रतापी चूंडा वंश में जन्म लिया था। अरिसिंह के अनुचित व्यवहारों के कारण यशवंत सिंह भी उससे बहुत अप्रसन्न था और राणा को उसके अनुचित व्यवहारों का बदला देने के लिए वह समय और संयोग की प्रतीक्षा में था। इस प्रकार के कितने ही कारण थे, जिनसे मेवाड़ के सामन्त और सरदार राणा अरिसिंह को सिंहासन से उतारने की चेष्टा कर रहे थे। इन्हीं दिनों में यह अफवाह फैल गयी कि राणा अरिसिंह जिस सिंहासन पर बैठा है, उसका वास्तव में अधिकारी रलसिंह है। इस रत्नसिंह के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की बातें मेवाड़ राज्य में कही जाने लगी और लोगों ने इस बात पर विश्वास किया कि रत्नसिंह राजसिंह का बेटा है और वह गोगुंदा सरदार की लड़की से पैदा हुआ है। यह लड़की राजसिंह को ब्याही गयी थी। इस वात के सत्य और असत्य होने का कोई भी निर्णय वहाँ के लोगों के सामने नहीं आया। हुआ यह कि विरोधी सामन्तों और सरदारों ने राणा को पदच्युत करने के लिए रत्नसिंह का आश्रय लिया। मेवाड़ के प्रधान सोलह सरदारों में से पाँच राणा के पक्ष में रह गये और वाकी ने रत्नसिंह के अधिकारों का समर्थन किया। इन सरदारों में प्रसिद्ध सालुम्बर सरदार प्रमुख रूप से रत्नसिंह का समर्थक था। परन्तु कुछ दिनों के बाद वह राणा के पक्षपाती सरदरों से मिल गया। दिपा वंश के वसंतपाल के पूर्वज बारहवीं शताब्दी में दिल्ली से समरसिंह के साथ मेवाड़ में आये थे और इसके पहले उसके पूर्वज पृथ्वीराज के मंत्रिमंडल में रह चुके थे। जो सरदार रत्नसिंह के पक्ष में थे, उनमें बसंतपाल भी एक था, जो कमलमीर में रहता था। वहीं पर विरोधी सरदारों और सामन्तों ने रत्नसिंह को मेवाड़ के सिंहासन पर बिठाने के लिए एक योजना का निर्माण किया और अरिसिंह को सिंहासन से उतारने के लिए उन विरोधी सरदारों ने सिंधिया से सहायता लेने का निर्णय किया और इस सहायता की कीमत में एक करोड़ पच्चीस लाख रुपये उन लोगों ने सिंधिया को देना मंजूर किया। मेवाड़ के सरदारों की इन राजनीतिक भूलों ने उस राज्य को पतन के निकट पहुँचा दिया। इन दिनों में कोटा का सरदार जालिमसिंह राजस्थान के राजाओं में बड़ी प्रसिद्धि पा रहा था। उसने मेवाड़ के इस आपसी विद्रोह को सुना । यहाँ पर जालिमसिंह के सम्बन्ध में इतना जान लेना आवश्यक है कि जिस समय राणा जगतसिंह ने माधवसिंह को आमेर के सिंहासन पर विठाने के लिए ईश्वरीसिंह के साथ युद्ध किया था, उन दिनों में जालिमसिंह का पिता कोटा का राजा था। उससे बदला लेने के लिए सिंधिया के साथ मिलकर ईश्वरीसिंह ने कोटा राज्य पर आक्रमण किया। उस मौके पर जालिमसिंह ने मराठों की सेना का सामना किया था। उसके बाद जालिमसिंह कोटा छोड़कर मेवाड़ के राणा के पास चला आया था और राणा ने उसको अपने राज्य में एक सरदार का पद देकर उसका सम्मान 277
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