पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

किया। साथ ही छत्रखैरी का इलाका देकर उसकी सहायता की थी। जालिमसिंह योग्य और दूरदर्शी राजपूत था। उसके परामर्श से राणा ने मराठों से सहायता लेने का निश्चय किया और इसके लिए राघूपागेवाला और दौलामिया नाम के दो मराठा नेता अपनी सेनाओं के साथ बुलाये गये। इस बीच में राणा ने राज्य के प्राचीन पंचोलियों को मन्त्री के पद से पृथक करके उग्रजी मेहता को राज्य के प्रबंध का भार दे दिया। ये घटनायें सम्वत् 1824 सन् 1768 ईसवी में मेवाड़ के राज्य में घट रही थीं। माधव जी सिंधिया इन दिनो में उज्जैन में था। उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए मेवाड़ के दोनों विरोधी दलों ने कोशिश की। सबसे पहले रत्नसिंह उसके पास पहुँचा और सिंधिया के साथ कुछ बातों का निर्णय करके उसने शिप्रा नदी के किनारे अपने सहायक आदमियों को लेकर मुकाम किया। इस दशा में राणा सिंधिया की सहायता प्राप्त न कर सका। राणा अरिसिंह रलसिंह की सेना का सामना करने के लिए रवाना हुआ।सालुम्वर का सरदार शाहपुर और बनेड़ा के दोनों राजा और जालिमसिंह एवम् दोनों मराठा नेताओं ने उस समय राणा की सहायता की । रत्नसिंह की सहायता में माधवजी सिंधिया की सेना मौजूद थी। राणा अरिसिंह ने सबको लेकर सिंधिया की सेना पर आक्रमण किया। दोनों तरफ से युद्ध आरम्भ हुआ। मेवाड़ के राजपूतों ने उस समय अपनी बहादुरी का परिचय दिया और उन लोगों ने बड़ी तेजी के साथ शत्रुओं का संहार किया। उस युद्ध में रत्नसिंह की पराजय हुई और वह सिंधिया की सेना के साथ उज्जैन की तरफ भागा और सिंधिया की सेना ने उज्जैन की तरफ दूर जाकर अपनी छावनी डाली। इसके वाद माधवजी सिंधिया ने अवसर पाकर एक ऐसे समय पर अपनी सेना के साथ राजपूतों पर आक्रमण किया, जबकि मेवाड़ की तरफ से आयी हुई सेना युद्ध के लिए तैयार न थी। उस समय सालुम्बर का सरदार, शाहपुरा और बनेड़ा के दोनों राजा मारे गये। मराठा सेनापति दौलामिया, सादड़ी का उत्तराधिकारी राजकुमार और कई अन्य शूरवीर भयानक रूप से घायल हुए। जालिमसिंह का घोड़ा मारा गया और वह स्वयं भीषण रूप से जख्मी हुआ। वह कैद कर लिया गया। उसके साथ प्रसिद्ध अम्बाजी के पिता त्रयंवकराव ने अत्यन्त सम्मानपूर्ण व्यवहार किया। राजपूतों की पराजित सेना उदयपुर की तरफ चली गयी। उज्जैन के करीब होने वाले युद्ध में मेवाड़ का जो सालुम्बर का सरदार मारा गया, भीमसिंह उसका चाचा और उत्तराधिकारी था। भीमसिंह राणा की सेना का सेनापति बनाया गया और उदयपुर की रक्षा का भार उसको सौंपा गया। लेकिन उस विपद काल में जिसके द्वारा उदयपुर की रक्षा हुई, उसका नाम अमरचंद वरवा था। अमरचन्द बरवा का जन्म वैश्य कुल में हुआ था। इसके पहले वह मेवाड़ का मन्त्री था। वह अत्यन्त बुद्धिमान और राज्य के कार्य में दूरदर्शी था। स्वर्गीय राणा के समय मेवाड़ में होने वाले उपद्रवों को रोकने में उसने बड़ी वुद्धिमानी से काम लिया था। राणा अरिसिंह ने उसके साथ भी शत्रुता पैदा कर ली थी और उसको मन्त्री पद से हटा दिया था। यह आघात अमरचन्द के हृदय में कम अपमानपूर्ण न था। मन्त्री पद से उसके पृथक हो जाने के बाद धीरे-धीरे दस वर्ष बीत गये । इन दिनों में मेवाड़ में बहुत से परिवर्तन हो गये। राणा अरिसिंह की अयोग्यता उसके पतन का रास्ती बनाती जाती थी। जिन सरदारों ने उसको छोड़कर रत्नसिंह के पक्ष का समर्थन किया था, उनके स्थानों पर राणा ने जिन आदमियों को नियुक्त किया, वे अयोग्य और राणा के झूठे प्रशंसक थे। वे राज्य की तरफ से 278