सम्वत् 1825 से लेकर सम्वत् 1831 तक इस संधि के अनुसार कार्य चलता रहा। अंत में सिंधिया के कर्मचारियों ने राणा के कर्मचारियों को उन स्थानों से निकाल दिया, जो स्थान सिंधिया के पास गिरवी रखे गये थे। इस दशा में उन गाँवों का समस्त इलाका मेवाड़ के अधिकार से निकल गया। लेकिन सिंधिया की शक्तियाँ भी बहुत समय तक कायम न रहीं और इसीलिये जो इलाके मेवाड़ के राज्य से निकल गये थे, राणा के फिर अधिकार में आ गये। परन्तु थोड़े दिनों के वाद वे फिर शत्रुओं के हाथ में चले गये। सम्वत् 1831 में मराठों में आपस में मतभेद पैदा हुआ। उनके सरदारों ने अपनी स्वाधीनता के लिये विद्रोही कोशिशें आरंभ की। इस प्रकार की परिस्थितियों में सिंधिया ने मोरवण नामक गाँव होलकर को दे दिया और होलकर ने उसको अपने अधिकार में लेकर एक वर्ष के बाद राणा से उसके राज्य के निम्बाहेड़ा नामक इलाके की माँग की। किसी भी अवस्था में अमरचन्द ने रत्नसिंह को असफल बना दिया। वह उदयपुर को छोड़कर मराठों की सेना के साथ चला गया। लेकिन जाने के पहले उसने उदयपुर के कई दुर्गों पर अधिकार कर लिया था और कितने ही नगर और ग्राम उसके कब्जे में आ गये थे। परन्तु उन पर उसका अधिकार बहुत दिनों तक न रहा । राजनगर, रायपुर और अन्तला पर मेवाड़ के राणा का फिर से अधिकार हो गया। जो सरदार अरिसिंह से विद्रोह करके रत्नसिंह के साथ हो गये थे, वे सब अब उसके साथ न रह सके और कई सरदार उसे छोड़कर उदयपुर चले आये। राणा ने उनके साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार किया और उनकी जागीरें उनको दे दी। अब रत्नसिंह की आशायें बिल्कुल निर्बल हो गयी थीं। मंत्री और मेवाड़ के सोलह श्रेष्ठ सरदारों में जो उसके साथ रह गये थे, उनमें देवगढ़, भिण्डी और आमैता के तीन सरदार थे। कुछ दिनों के बाद ये तीनों सरदार भी राणा की तरफ आ गये। जिन दिनों में रत्नसिंह कमलमीर में रहने लगा था, राणा अरिसिंह ने जोधपुर के राजा विजयसिंह को गोडवाड़ का अधिकार दे दिया था। राणा को यह आशंका हुई थी कि रत्नसिंह कमलमीर में रहकर गोडवाड़ पर अधिकार कर लेगा। गोडवाड़ मारवाड़ के सभी इलाकों में अधिक उपजाऊ है। गोडवाल को देकर राणा ने विजयसिंह के साथ एक इकरारनामे की लिखा-पढ़ी की थी। बसन्त का आहेरिया उत्सव राजपूतों का एक पुराना उत्सव है। यह उत्सव मेवाड़ के लिये कई बार अनर्थकारी साबित हुआ है। इस राज्य के तीन राणा इस उत्सव में अपने प्राणों का नाश कर चुके थे। फिर भी इस उत्सव के महत्व को कोई आघात नहीं पहुंचा था। राणा अरिसिंह भी इस उत्सव में भाग लेने के लिये गया था और जब वह वापस आने लगा तो रास्ते में हाड़ा राजकुमार अजित ने उस पर अपने भाले का वार किया। उस भाले से जख्मी होने के बाद इन्दुगढ़ के एक सरदार ने तलवार से राणा का सिर अलग कर दिया । अजीत के इस अनुचित कार्य से उसका पिता बहुत अप्रसन्न हुआ और सभी हाड़ा सरदारों ने इस कार्य के लिये अजित की निंदा की। राणा अरिसिंह के इस प्रकार मारे जाने के कुछ कारण थे। यह पहले लिखा जा चुका है कि अरिसिंह से उसके सरदार आरंभ से ही मतभेद रखते थे। जिस सालुम्बर सरदार के पिता ने मेवाड़ राज्य के हित के लिए उज्जैन के युद्ध में अपनी जान दे दी थी, राणा अरिसिंह ने उसका भयानक रूप से अपमान किया था और राज्य से निकल जाने के लिए उसे आदेश दिया था। उस सरदार के विनयावनत होने पर भी राणा ने किसी प्रकार दया न की थी, बल्कि अपनी आज्ञा को अधिक कठोर बनाकर चूंडावत सरदार से कहा था- “यदि तुम मेरा आदेश पूरा न करोगे तो मैं तुम्हारा सिर कटवा दूंगा।” चूंडावत सरदार को विवश हो कर 283
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