पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/२८९

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घेरे जाने के कुछ पूर्व पुरावत सरदार के साथ संग्राम सिंह का एक झगड़ा पैदा हुआ। लाना नामक उस सरदार का एक दुर्ग था। संग्रामसिंह ने उस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इसी बीच में भी डर का दुर्ग घेरा जा चुका था। शक्तावत वंश के साथ संग्राम सिंह का सम्बंध था। इसलिए उसने उसके बदले में कोरावाड पर आक्रमण किया। अर्जुनसिंह वहाँ का अधिकारी था। संग्राम सिंह ने वहाँ के बहुत से पशुओं को अपने अधिकार में ले लिया। उसी मौके पर अर्जुनसिंह के पुत्र सालिमसिंह ने उसके साथ युद्ध किया और वह संग्रामसिंह के भाले से मारा गया। पुत्र के मारे जाने का समाचार अर्जुनसिंह ने सुना, उसने अपने सिर का साफा फेंककर प्रतिज्ञा की कि 'जब तक संग्रामसिंह से मैं अपने बेटे के मारे जाने का बदला न ले लूँगा अपने सिर पर साफा न बाँधूगा।” इसके बाद वह कोरावाड की तरफ रवाना हुआ। संग्रामसिंह अपने को शत्रुओं से सुरक्षित समझता था। इसका परिवार वहीं पर रहा करता था। अर्जुनसिंह अपनी सेना के साथ शिवगढ़ पहुँचा। वहाँ के दुर्ग मे लालजी के सिवा और कोई शूरवीर न था। बुढ़ापे में पहुँचकर उसने अपनी अवस्था के सत्तर वर्ष पूरे किये थे। उसका शरीर शिथिल और निर्बल हो गया था। उसके पास लड़ने वालों की संख्या बहुत थोड़ी थी। फिर भी वह अपने हाथों में तलवार और ढाल लेकर निकला और अपने थोड़े से आदमियों की शक्ति का सहारा लेकर उसने युद्ध किया। लड़ते हुए वह मारा गया। अर्जुनसिंह ने संग्रामसिंह के परिवार और बच्चों का सर्वनाश किया। लालजी की वृद्धा स्त्री उसके मृत शरीर को लेकर सती हुई। कोरावाड के अधिकारी अर्जुनसिंह के द्वारा होने वाले इस सर्वनाश का परिणाम मेवाड़ राज्य पर अच्छा नही पड़ा। आपसी फूट पहले से चली आ रही थी। उसने इन दिनों में भयानक रूप धारण किया और राज्य का अपहरण करने में उस फूट ने मराठों को एक अच्छा अवसर दिया। शिवगढ़ के सर्वनाश बाद चडावत और शक्तावत वंश की शत्रुता भयानक हो उठी। चूंडावत वंश के लोगों को राणा के यहाँ प्रधानता मिली थी और उस वंश के सालुम्बर सरदार को राज्य की रक्षा का अधिकारी बनाया गया। मेवाड़ में इन दिनों राजपूत वीरों का अभाव था। शताब्दियों से शत्रुओं के आक्रमणों का सामना करते-करते वे सभी अपने प्राणों की आहुतियाँ दे चुके थे। जो बाकी रह गये थे, उनको और उनकी संतानों को राज्य के वर्तमान राणा की अकर्मण्यता ने भीरू बना दिया था। इसलिए राज्य की रक्षा के लिए किराये पर सिंधी सेना रखी गयी थी और चित्तौड़ तथा उदयपुर के बीच का समस्त श्रेष्ठ डुलाका उसको दे दिया गया था। चूंडावत मंत्री भीमसिंह इन दिनों में मेवाड़ का मंत्री था और उसने सिंधी सेना को सुविधायें देकर उनको अपने अनुकूल बना रखा था। इस भीमसिंह ने अपनी कुटिल राजनीति से राज्य को और भी अधिक मिट्टी में मिलाने का काम किया था। उसने अपने अधिकारों का दुरूपयोग किया था और राज्य की सम्पत्ति को पानी की तरह बहाकर उसने बर्बाद किया। राणा भीम के पास सम्पत्ति का उस समय इतना अभाव था कि उसने अपना विवाह जब ईडर राज्य में किया था तो उसके खर्च के लिए उसको कर्ज लेना पड़ा था। लेकिन राज्य की इस दुरवस्था के दिनों में भी मंत्री भीम ने अपनी लड़की के विवाह में दस लाख रुपये से अधिक खर्च किये। राणा भीमसिंह की अयोग्यता का यह परिणाम था कि उसका मंत्री राज्य में मनमानी कर रहा था और राणा तथा राजमाता की उपेक्षा करने में उसे कुछ भी भय न होता था। राजमाता मंत्री भीम के असद् व्यवहार को अधिक समय तक सहन न कर सकी। उसने शक्तावंश के श्रेष्ठ जनों को बुलाकर अपने राज्य में प्रतिष्ठा दी और भीण्डर तथा लावा 289