पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३०१

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राज्य का प्रबन्ध शान्तिपूर्वक चलाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए अधिक धन की जरूरत थी और आर्थिक मामलों में देश की अवस्था बड़ी भयानक हो गयी थी। इस दशा में उसने राज्य के सरदारों को बुलाकर इस विपय में गंभीरता के साथ परामर्श किया। राज्य के सरदारों ने एकत्रित होकर अग्रजी की बातें सुनी। उन लोगों ने यूरोप से आये हुए लोगों के प्रभुत्व को अपनाने का समर्थन नहीं किया और इसी उद्देश्य से उन लोगों ने मन्त्री अग्रजी को कैद कर लिया। उसके स्थान पर सतीदास को फिर मन्त्री बनाया गया। उसका भाई शिवदास चन्दावत लोगों के भय से कोटा चला गया था। उसे वहाँ से बुलवाया गया। सन् 1802 ईसवी में मराठा शासन के सम्बन्ध में जो एक लाख पचास हजार आदमी एकत्रित हुए थे, उन्होंने होलकर से उसका राज्याधिकार छीन लिया और उसकी राजधानी में हाथियों और घोड़ों के अतिरिक्त जो भी युद्ध की सामग्री और सम्पत्ति मौजूद थी, उस पर अधिकार कर लिया। होलकर के मेवाड़ की तरफ भागने पर सिंधिया की सेना ने उसका पीछा किया। सदाशिवराव और बालाराव सिंधिया की सेना के प्रधान थे। मेवाड़ की तरफ भागते हुए होलकर ने रतलाम का दुर्ग लूट लिया और शक्तावत लोगों के स्थान भीडर दुर्ग को घेर कर उसने रुपये की सहायता माँगी । शक्तावत लोग होलकर की इस मांग से घबरा उठे। सिंधिया की सेना अब भी होलकर का पीछा कर रही थी। इसलिए होलकर भींडर को छोड़ कर नाथद्वारा चला गया। वहाँ के पुरोहित और पुजारी से उसने तीन लाख रुपये वूसल किये। यह रकम उसने नाथद्वारा के लोगों से बड़ी निर्दयता के साथ वसूल की। नाथद्वारा का प्रधान पुजारी दामोदर जी था। होलकर के इस आक्रमण से भयभीत होकर उसने वहाँ की देव मूर्ति को किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाने का इरादा किया और इस विषय में उसनें कोटारियों के सरदार से परामर्श किया। निश्चय हुआ कि इसके लिए उदयपुर से अच्छा दूसरा कोई स्थान नहीं हो सकता। इसलिए पुजारी दामोदर जी अपनी देवमूर्ति को वहाँ ले जाने के लिए तैयार हुआ। उसकी रक्षा करने के लिए बीस सवारों के साथ कोटारियों का सरदार साथ चला और पुजारी को वहाँ पहुँचा कर अपने सवारों के साथ जब वह लौट रहा था तो रास्ते में होलकर की सेना के सिपाहियों ने कठोर स्वर में उससे कहा, “आप लोग अपने घोड़े हम लोगों को दे दें। अगर ऐसा न करेंगे तो उसका नतीजा बुरा होगा।" इस बात को सुनकर कोटारियों का सरदार क्रोध के साथ बोला, “हम लोग राजपूत हैं। इस प्रकार प्राण रहते हुए हम लोग अपने घोड़े नहीं दे सकते।" उस सरदार ने होलकर के सैनिकों की कुछ परवाह न की । फलस्वरूप मराठा सैनिकों ने आक्रमण किया। सरदार ने अपने थोड़े-से आदमियों के द्वारा कुछ देर तक युद्ध किया और अन्त में वह मारा गया। उसके मारे जाने पर नाथद्वारा का कोई रक्षक न रह गया। होलकर ने वहाँ के पुजारी से और वहाँ के निवासियों से तीन लाख रुपये वसूल किये। पुजारी दामोदर उदयपुर पहुंचा। परन्तु वहाँ पर उसकी तबीयत न लगी। राणा की हालत को देखकर उसने वहाँ पर रहना अपने लिए सुरक्षित न समझा । इसलिए छः महीने के बाद वह गसियर नामक एक पहाड़ी स्थान पर चला गया और वहाँ की पहाड़ी दीवारों के बीच एक मंदिर बनाकर अपनी देव मूर्ति के साथ वह रहने लगा। उदयपुर से पच्चीस मील उत्तर की तरफ नाथद्वारा बसा हुआ है। इस स्थान का वर्णन आगे विस्तार से साथ 1. किया जाएगा। 301