पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३१०

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अजितसिंह और अमीर खाँ का परामर्श राणा भीमसिंह ने भी सुना । उसका हृदय काँप उठा। उसकी समझ में न आया कि इस संकट के समय किसका आश्रय लिया जा सकता है। वह मानसिंह के साथ अपनी बेटी का व्याह करने के लिए किसी भी दशा में तैयार न था और न वह अपनी प्यारी-दुलारी लड़की के प्राणों का नाश ही अपने नेत्रों से देखना चाहता था। राणा के सामने भयानक संकट था। उसने अपने जीवन में बड़े-से-बड़े संकट देखे थे। लेकिन इस समय उन सब को वह भूल गया था। इस समय क्या करना चाहिये, यह उसकी समझ में न आया। राणा इस बात को समझता था कि अमीर खाँ की बातों में सत्य है और यदि वैसा न किया गया तो मेवाड़ में भयानक से भयानक दृश्य उपस्थित होंगे। इस समस्या को लेकर राणा ने अपने महल में बैठकर सरदारों और परिवार वालों के साथ कई बार परामर्श किया। परन्तु किसी फैसले का निर्णय न हुआ। बहुत सोचने और समझने के बाद अन्त में जो तय हुआ, उसमें राणा ने इस बात को स्वीकार किया कि वह कार्य किसी स्त्री के द्वारा ही होना चाहिए इसको मान लेने के बाद भी किसी की समझ में यह न. आया कि एक स्त्री इस कठोर कार्य में कहाँ तक सफल हो सकती है। बहुत सोचने-विचारने के वाद निश्चय हुआ कि राणा के परिवार के दौलत सिंह से इस संकट के समय सहायता ली जाये। उस परामर्श के समय दौलत सिंह राणा के पास बैठा था। सीसोदिया वंश का सम्मान सुरक्षित रखने के लिए जिस कठोर कार्य का निर्णय हुआ, उसका उत्तरदायित्व दौलतसिंह पर रखा गया लेकिन उस कार्य को सम्हालने में दौलतसिंह ने काँपते हुए स्वर में असमर्थता प्रकट की। उसके नेत्रों से आँसू बह उठे। उसने इन्कार करते हुए कहा : “मेरी तलवार कृष्ण कुमारी के प्राणों का संहार न कर सकेगी। मैं अपने वंश और देश के प्रति इस प्रकार लज्जापूर्ण कार्य नहीं कर सकता।" दौलत सिंह के इन्कार करने पर यह कार्य जवानदास को सौंपा गया। जवानदास भीमसिंह के स्वर्गीय पिता की उपपली से उत्पन्न हुआ था। उसके बुलाए जाने पर उसने इस कार्य को स्वीकार कर लिया। लेकिन जिस समय कृष्णकुमारी वहाँ पर बुलाई गयी, उसको सामने देखकर जवानदास की आँखें नीची हो गयी और उसकी तलवार हाथ से फिसल गयी। खिले हुए फूल के समान कृष्णकुमारी के मुखमंडल को देखकर वह काँप उठा और बिना कुछ कहे हुए वह उस स्थान से चुपके से चला गया । कृष्णकुमारी को यह रहस्य कुछ मालूम न था। लेकिन वह किसी से छिपा न रह सका। राजमहल में सभी को राणा का निर्णय मालूम हो गया। कृष्णकुमारी की माता ने उसके प्राणों को बचाने का प्रयास किया। परन्तु उसको सफलता न मिली, वह निराश हो गयी। पूर्व निर्णय के अनुसार, एक स्त्री ने विष तैयार करके राणा के नाम से राजकुमारी कृष्णकुमारी को दिया । सब-कुछ जानते और समझते हुए भी कृष्णकुमारी ने विष का प्याला अपने हाथ में ले लिया। उसके चेहरे पर किसी प्रकार का कोई परिवर्तन न हुआ और सहज स्वभाव से वह प्याले को अपने मुख से लगाकर विष को पी गयी। उसकी माँ वहीं पर खड़ी होकर यह सब देख रही थी। उसके नेत्रों में आँसू देखकर राजकुमारी ने कहा-“माँ, तुम क्यों रंज करती हो । मुझे मृत्यु से कोई भय नहीं है। भय क्यों हो? क्या मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ ? राजपूत वंश में जन्म लेकर मृत्यु का भय करना कैसा? हम सबका जन्म ही बलिदान होने के लिये होता है, फिर उसका भय क्यों हो? मैं अब तक जीती रही, क्या यह कम आश्चर्य की बात है?" 310