- कीर्ति को अमर बनाया था। जीवन की अटूट कीर्ति उनको ऐसे ही न मिल गयी थी। हमारे पूर्वजों ने कभी किसी शक्तिशाली के सामने अपना मस्तक नीचा नहीं किया था। संसार की शक्तियाँ एक तरफ थीं और सीसोदिया वंश की शक्ति दूसरी तरफ थी, इस वंश ने बड़ी-से-बड़ी शक्तियों के साथ युद्ध किया था और शत्रुओं का संहार करते अपने प्राणों को उत्सर्ग किया था। चित्तौड़ की कीर्ति को तू भूल गया है। मैं किसको सम्बोधित करके ये बातें कह रहा हूँ। एक राजपूत को? नहीं, उसको जो राजपूत जाति का कलंक है। यदि हमारी बहू-बेटियों और बहनों पर कोई विपत्ति आयी थी तो अपने हाथ में तलवार लेकर तूने शत्रु का सामना क्यों न किया था? यदि तूने ऐसा किया होता तो तेरा नाम भविष्य में प्रसिद्ध होता और तेरी इस बहादुरी से वप्पा रावल को स्वर्ग में सुख प्राप्त होता । परन्तु तूने कुछ न किया, उसके द्वारा इस वंश की सम्पूर्ण योग्यता और श्रेष्ठता को मिटा कर तूने सदा के लिए इस वंश को निर्लज्ज बना दिया। आज संसार क्या कहेगा ? यही न कि दुष्टों और दुराचारियों के भय से बप्पा रावल के वंशज राणा भीमसिंह ने अपनी युवा राजकुमारी को विष देकर अपनी कायरता का परिचय दिया। तूने आने वाली विपत्ति की प्रतीक्षा न की। तेरे भय ने तेरे जीवन के समस्त गुणों का नाश कर दिया। तेरी बुद्धि नष्ट हो गयी है और इसीलिये तूने यह घृणित कार्य किया। हमारे वंश के सर्वनाश का समय अब निकट आ गया है।" विश्वासघातक अजितसिंह संग्रामसिंह की बातों को चुपचाप सुनता रहा। उसने किसी बात का उत्तर न दिया। लड़के और लड़कियाँ-सब मिलाकर राणा के पिच्यानवे संतानें हुई थी। लेकिन एक पुत्र को छोड़कर जो कृष्णकुमारी का भाई था-सुबकी मृत्यु हो गयी थीं। उसकी दो लड़कियों के अभी कुछ दिन पूर्व विवाह हुये थे। एक जैसलमेर में तथा दूसरी बीकानेर के राजा को ब्याही गयी थी। उनसे जो लड़के हुये, वे राजस्थान की प्रणाली के अनुसार नाना के सिंहासन के अधिकारी न हो सके। संग्रामसिंह ने अजितसिंह को शाप दिया था, वह पूरा हुआ। राजकुमारी की मृत्यु के बाद एक महीना भी न बीता था, उसकी स्त्री की मृत्यु हो गयी और दो पुत्रों की मृत्यु हुई। इस विनाश से अजितसिंह का जीवन सूना हो गया । संसार में उसे अन्धकार दिखायी दे रहा था। जिन्दगी-भर के पापों का फल उसको बुढ़ापे में मिला। उसने सम्पूर्ण जीवन में जो अपराध किये थे, वे सब उसके सामने आये। अब बुढ़ापे में उसको वैराग्य सूझा । भगवान का भक्त बन कर उसने अपने पापों का प्रायश्चित करना आरम्भ किया। अमीर खाँ जन्म से ही धूर्त और विश्वासघाती था। वह होलकर का सामन्त था। वह किसी का साथी न था। जिससे उसका स्वार्थ-साधन होता, उसी से वह मिल जाता था। अपने स्वार्थों के ही कारण होलकर को छोड़कर वह अंग्रेजों से मिल गया था और इसके लिए उसने अंग्रेजों से सिरौंज, टोंक, रामपुरा और नीम्बोहेड़ा आदि अनेक स्थान पाये थे। सन् 1806 ईसवी में बसंत ऋतु में अंग्रेजों का दूत मेवाड़ में आया। सम्पूर्ण मेवाड़-राज्य उजड़ चुका था। उसके शूरवीर मारे जा चुके थे, उसकी समस्त सम्पत्ति लूटी जा चुकी थी और अच्छे-अच्छे मकानों तथा महलों के स्थानों पर खंडहर दिखायी देते थे। सम्पूर्ण राज्य जंगल हो गया था, राज्य का व्यवसाय और वाणिज्य मिट गया था। कृषक दरिद्र हो गये थे। मराठा सेनाओं ने राज्य को लूटकर सभी प्रकार से बर्बाद कर दिया था। जिस अम्बाजी ने निर्दयता के साथ मेवाड़ का विनाश किया था, उसको उसके पापों का बदला खूब मिला। अभिमान में आकर उसने अपने राजा सिंधिया को धोखा देकर ग्वालियर में अपनी स्वतंत्रता का झंडा खड़ा किया। सिंधिया ने उसके अपराधों की सजा उसको दी। उसने उसके हाथों-पाँवों की उँगलियाँ जलवा दी और उसका समस्त धन छीन 312.
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