के साथ कायम कर लिये थे। अब आसानी से ठन सम्बन्धों को तोड़ा नहीं जा सकता था। फिर भी राणा ने इस आशय की एक विज्ञप्ति लिखकर प्रकाशित की कि मेवाड़ के जो लोग शत्रुओं के अत्याचारों से राज्य छोड़कर भाग गये हैं, उनको लौटकर अपने स्थानों पर आ जाना चाहिये । इसका उत्तर टन लोगों ने, जो राज्य छोड़कर चले गये थे अत्यन्त प्रभावशाली शब्दों में दिया। उन्होंने कहा - "शत्रुओं के अत्याचारों तथा देशद्रोहियों के पाखन्डों से हम अपना बपौती का अधिकार नहीं छोड़ देंगे।" भागे हुए लोगों के लिए राणा की घोषणा हो चुकी थी। अपनी मातृभूमि में लौटकर आने के लिए लोगों को अपार आनन्द का अनुभव होने लगा। अपने घरों का सामान छकड़ों पर लादकर लोग मेवाड़ की तरफ रवाना हुए । इस समय उनके मन में प्रसन्नता का ठिकाना न था। रास्ते में चलते हुए वे सब मिलकर गाना गा रहे थे। मेवाड़ में पहुँच कर लोगों ने अपने-अपने घरों में प्रवेश किया। अंग्रेजों के साथ संधि होने के आठ महीने बाद मेवाड़ के तीन सौ नगर और ग्राम मनुष्यों से आवाद हो गये। जो जमीन बहुत दिनों से बेकार पड़ी थी, उसमें फिर से खेती का काम आरम्भ हुआ । जो नगर और ग्राम सूनसान हो गये थे, ठनमें फिर मनुष्यों का कोलाहल सुनायी पड़ने लगा। निर्जन हो जाने के कारण जहाँ पर जंगली पशुओं ने अपने रहने के लिए स्थान बना लिए थे, अब फिर से वहाँ पर मनुष्यों की चहल-पहल दिखायी पड़ने लगी। अंग्रेजों के साथ संधि करने के बाद राणा को बहुत बड़ी राहत मिली थी। इसीलिए अपने मंत्रियों के परामर्श से उसने उन लोगों को पास बुलाने की घोषणा की थी, जो अत्याचारों के दिनों में राज्य से भाग गये थे। वे लोग बड़े सुख तथा स्वाभिमान के साथ लौट कर आ गये। उनके आ जाने से ठजड़े हुए घर, ग्राम और नगर बहुत कुछ बस गये लेकिन राज्य के लिये इतना ही काफी नहीं था। जो लोग लौटकर आये थे उनके पास कोई कार्य,व्यवसाय न था। राणा के पास उनकी सहायता के लिए सम्पत्ति न थी। राज्य में फैले हुए अत्याचारों के दिनों में भी जिन लोगों ने किसी प्रकार अपने धन की रक्षा कर ली थी, राणा ने उन लोगों से इस समय ऋण माँगा और विवश अवस्था में राज्य के इन लोगों से छत्तीस प्रतिशत सूद पर राणा को कर्ज लेना पड़ा। राणा के ऊपर पहले से ही कर्ज का भार था, वह अब और भी अधिक कर्जी हो गया। इन दिनों में बाहरी व्यापारियों ने कर्ज देने का व्यापार मेवाड़ में शुरू किया और राज्य में स्थान-स्थान पर उसकी शाखायें कायम हो गयीं। लेकिन यह बहुत दिनों तक नहीं चला। राज्य में इन व्यवसायियों के विरुद्ध प्रवन्ध हुआ और जो व्यवस्था की गयी, उससे बाहरी व्यवसायियों का आतंक समाप्त हो गया। अपने व्यवसाय को नष्ट करके भीलवाड़ा उजड़ चुका था। लेकिन इन दिनों में उसने फिर उन्नति की और जिस भीलवाड़ा में पहले छः सौ दुकानें थीं, वहाँ पर बारह सौ दुकानें खुल गयीं। उसके टूटे-फूटे मकानों की मरम्मत हो गयी और ठसका बाजार रोजाना उनति करने लगा। राज्य की इस टनति में अनेक बाधायें भी पड़ी। स्वार्थों के कारण व्यवसायी लोग आपस में द्वेप करने लगे। चॅन्डावतों और शक्तावतों का पिछले दिनों में मेल भी हो गया था, लेकिन उनके बीच में कलुपित व्यवहारों ने इन दिनों में फिर से उग्र रूप धारण किया। राज्य के जिन शुभचिंतकों ने उनमें एकता कायम रखने की कोशिश की थी, वे निराश हो गये। शक्तावत सरदार जोरावर सिंह ने तो यहाँ तक कह डाला कि भेड़िया और बकरी का एक घाट पानी पीना संभव हो सकता है, परन्तु चूँन्डावत और शक्तावत लोगों का मेल के साथ रह सकना संभव नहीं हो सकता। 318
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