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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३१९

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- अंग्रेजों के साथ राणा की संधि हो चुकी थी, परन्तु सामन्तों और सरदारों के साथ राणा के क्या सम्बन्ध रहेंगे, इसका निर्णय अभी तक बाकी था। इसके लिए राणा ने सब सामन्तों और सरदारों की एक सभा की और इसके सम्बन्ध में लिखी गयी पत्रिका विचार और निर्णय के लिए सब के सामने उपस्थित की गयी। बड़ी उलझनों और आलोचनाओं के बाद जो निर्णय हुआ, उस पर राणा तथा सामन्तों और सरदारों के हस्ताक्षर हो गये। राज्य की व्यवस्था सुचारू रूप से आरम्भ हुई। जो सरदार राज्य से निकाले गये थे, उनको बुलाया गया और जिन सरदारों ने विद्रोह कर रखा था, उनका दमन किया गया। व्यवसाय की उन्नति के सब साधन जुटाए गये, विद्रोही सरदारों ने राज्य के जिन इलाकों पर अधिकार कर लिया था, उन पर फिर से अपना अधिकार करने के लिए राणा ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया और उसमें राणा को सफलता भी मिली। इस सिलसिले में कुछ घटनाओं का यहाँ पर संक्षेप में उल्लेख करना आवश्यक है। मेवाड़ में अरझा नाम का एक दुर्ग है । पूरावत गोत्र के सरदारों ने इस दुर्ग को राणा के अधिकार से जबरदस्ती ले लिया था। पन्द्रह वर्षों के बाद शक्तावतों ने उस दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया और राणा को दस हजार रुपये देकर उन लोगों ने उस दुर्ग पर अपना अधिकार प्राप्त कर लिया। इन दिनों में उस दुर्ग को शक्तावत लोगों से ले लेना जरूरी समझा गया। जब शक्तावत लोगों ने सुना कि राणा का इरादा इस दुर्ग को भी लेने का है तो वे लोग बहुत चिंतित हो उठे। शक्तावतों और चूंन्डावतों पर मेवाड़ का गौरव निर्भर करता है। इस विद्रोह की आशंका होने से राणा को भी बड़ी चिंता हुई। लेकिन अरझा दुर्ग के सम्बन्ध में बड़ी बुद्धिमानी के साथ निर्णय किया गया, जिससे राणा और शक्तावतों के बीच पैदा होने वाला विद्रोह दब गया। इस दुर्ग के सम्बन्ध में जिन सरदारों के विद्रोही होने की संभावना थी, उनमें दो प्रमुख थे और उनमें एक का नाम जैतसिंह था । राठौर वंश की मैड़तिया शाखा में इसका जन्म हुआ था। बादशाह अकबर के साथ युद्ध करने वाले शूरवीर जयमल ने भी इस शाखा में जन्म लिया था। राणा के साथ जैतसिंह का विरोध जब शांत न हो रहा था तो राणा ने उसका निर्णय मुझे सौंप दिया था। मैंने उसे सभी प्रकार समझाने की कोशिश की और उसमें मुझे सफलता मिली । मैंने उसका विरोध समाप्त कर दिया और जैतसिंह ने अधिकारों को खत्म करते हुए राणा के नाम जो कुछ लिखा, उसे उसने मेरे हाथों में दे दिया। भदेश्वर के सरदार हमीर का वर्णन पहले किया जा चुका है। चूंन्डावत गोत्र में उसने जन्म लिया था । मेवाड़राज्य में वह दूसरी श्रेणी का सरदार था, राणा के प्रधानमन्त्री सोमजी को जिस सरदार ने मार डाला था, हमीर उसी का बेटा था। जिन सरदारों ने मेवाड़राज्य के साथ विद्रोह किया था, हमीर उनमें प्रधान था। उसकी जागीर की आमदनी तीस हजार रुपये से अधिक न थी। लेकिन अपने बल-पौरुष के द्वारा उसने अपनी आमदनी अस्सी हजार रुपये वार्षिक की बना रखी थी। उसने राणा पर अपना अनुचित प्रभाव कायम कर रखा था । लावा का शक्तावत सरदार उसका अभिन्न मित्र था। खैरोदा का दुर्ग भी उस समय उसी के अधिकार में था। दोनों का स्वभाव एक-सा था और दोनों ने अपनी कुटिल राजनीति से राणा को प्रभावित कर लिया था । अन्य विद्रोही सरदारों की जागीरें जब राणा ने वापस ले ली थीं, उन दिनों में भी लावा सरदार और हमीर अनाधिकृत रूप से अपनी जागीरों का भोग कर रहे थे। इस दशा में कुछ दिनों के बाद राणा ने लावा के सरदार को हिदायत दी कि “जब तक आप खैरोदा का दुर्ग और बलपूर्वक अधिकार में रखी हुई जागीर राज्य को वापस 319