- इस प्रकार की घटनाओं से सावित होता है कि राजस्थान में भूमि पर पूर्ण रूप से किसानों का अधिकार है। राजा कर वसूल करता है। मेवाड़ में इस कर के लेने की व्यवस्था आवश्यक है, अनाज के ऊपर मेवाड़ में दो तरह का कर लिया जाता है। ये दोनों कर कंकूट और भुट्टाई या बंटाई के नाम से प्रसिद्ध हैं । गन्ना, पोस्त, सरसों, सन, तम्बाकू, रुई, नील और फूलों पर दो रुपये प्रति बीघा से लेकर छ: रुपये तक कर लिया जाता है । खेतों में अनाज के काटे जाने के पहले राज कर्मचारी अनुमान के आधार पर जो कर लगा देते हैं, उसको कंकूट कहते हैं। खेत का स्वामी कृषक यदि चाहे और समझे कि उस पर कर अधिक लगा लिया गया है, तो उसके विरुद्ध वह राजा के यहाँ प्रार्थना पत्र दे सकता है । भुट्टाई कर के लिए भी वह राजा को प्रार्थना पत्र दे सकता है। खलिहान में अनाज तैयार हो जाने पर और पैदावार ठीक-ठीक मालूम हो जाने पर राज कर्मचारियों के द्वारा जो कर लगाया जाता है, उसे भुट्टाई कहते हैं। यहाँ पर भुट्टाई अथवा बटाई की प्रथा पुरानी है। इस रीति के अनुसार जौ, गेहूँ और इस तरह की दूसरी चीजों पर पैदावार का तृतीयांश अथवा दो पंचमांश राजा को मिलता है और कभी-कभी आधा भी कंकूट और भुट्टाई की रीतियों के अनुसार, बाजार भाव से कर जोड़कर निश्चित किया जाता है। इन करों के लगाने में राज कर्मचारी आम तौर पर किसानों के साथ वेईमानी करते हैं। वे किसानों से रिश्वत लेते हैं और रिश्वत लेकर वे किसानों की पैदावार कम दिखाते हैं। रिश्वत न पाने पर वे पैदावार को अधिक जाहिर करते हैं। ऐसा करने से किसानों पर लगने वाला कर बढ़ जाता है। एक कर्मचारी के बाद दूसरा आता है और वह भी रिश्वत लेता है। किसानों का सम्बन्ध एक ही कर्मचारी से नहीं रहता। रिश्वत देकर एक कर्मचारी की सहायता प्राप्त कर लेने के बाद किसान अपनी दी हुई रिश्वत का लाभ नहीं उठा पाता । दूसरा कर्मचारी आकर उससे रिश्वत पाने की आशा करता है । न पाने पर वह किसान के विरुद्ध रिपोर्ट करता है कि उसके खेतों की पैदावार राज्य के कागजों में कम दिखाई गई है। कर के सम्बन्ध की यह व्यवस्था किसानों के लिये बड़ी घातक है। सन् 1818 ईसवी में मेवाड़राज्य में सुधार आरम्भ हुए । उनकी शुरुआत अंग्रेजों की संधि के बाद से हुई। सन् 1821 ईसवी के अंतिम दिनों में राज्य के तीन इलाकों की मनुष्य गणना की गयी। उनके सत्ताईस गाँवों में से केवल छ: गाँवों में मनुष्यों की आवादी थी और उनमें सव मिला कर केवल तीन सौ उनहत्तर मनुष्य पहले रहते थे। इनमें भी तीन चौथाई आमली दुर्ग के थे। लेकिन नवीन गणना के अनुसार उन छ: गाँवों में नौ सौ छब्बीस मनुष्य रहते हुए पाये गये। तीन वर्षों में उनकी आबादी बढ़कर तीन गुनी हो गयी। इसके साथ-साथ वहाँ की खेती और दूसरे व्यवसायों में भी उन्नति हुई। चौगुनी भूमि में खेती का काम होने लगा। अंग्रेजों से संधि के बाद राज्य ने तेजी के साथ सभी प्रकार की उन्नति की। कमलमीर, रायपुर, राजनगर, सादड़ी और कुनेडा मराठों से लेकर, कोटा से जिहाजपुर लेकर विद्रोही सरदारों से बहुत-सी भूमि और पहाड़ी लोगों से मैरवाड़ा लेकर राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार जो नगर और ग्राम फिर से राज्य में मिलाये गये, उनकी संख्या कुछ ही दिनों में एक हजार तक पहुँच गयी। सन् 1818 ईसवी से 1822 ईसवी तक मेवाड़ से जो कर वसूल हुआ, उसकी फेहरिस्त नीचे लिखी गई है। उसके द्वारा मेवाड़ की होने वाली उन्नति का अनुमान आसानी के साथ किया जा सकता है 1 321
पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३२१
दिखावट