- भयानक रूप से मारे जा रहे हैं। उस समय उसको अपने भ्रम पर बहुत अफसोस हुआ और उसने समझ लिया कि सरदारों पर अविश्वास करने के लिये मेरे साथ एक भीषण षड़यन्त्र रचा गया था। उसने बड़ी पीड़ा के साथ इस बात को अनुभव किया कि अपने सरदारों पर अविश्वास करने में मैंने बहुत बड़ी भूल की है। उसी समय उसने मारवाड़ की रक्षा के लिये अपनी सेना को तैयार किया और युद्ध के क्षेत्र में पहुँचने की उसने चेष्टा की। मालदेव की सेना जिस समय वहाँ पर पहुँची, उसके सरदारों की सेना मारी जा चुकी थी और बहुत से सरदार युद्ध-क्षेत्र में अपने प्राण दे चुके थे। इस दुरवस्था में मालदेव की सेना ने शेरशाह की फौज का सामना किया। परन्तु वह सेना भी अधिक समय तक युद्ध न कर सकी। मालदेव के बहुत से सैनिक मारे गए और अन्त में उसकी पराजय हुई। शेरशाह से पराजित होकर दिल्ली की राजधानी से हुमायूँ के भागने पर हिन्दुस्तान में उसे कहीं शरण न मिली थी। इसलिये इस देश की मरुभूमि में जाकर अमरकोट में हुमायूँ ने आश्रय लिया था। वहीं पर उसके बेटे अकबर का जन्म हुआ। उसके पश्चात् हुमायूँ भारतवर्ष से निकलकर परसिया के राज्य में चला गया और वहाँ पर वहुत समय तक रहकर उसने अपने जीवन के दिन काटे । वहाँ से लौटकर वह फिर भारतवर्ष में आया और उसने शेरशाह पर आक्रमण किया। उस युद्ध में शेरशाह की पराजय हुई और हुमायूँ फिर दिल्ली के सिंहासन पर बैठा। शेरशाह को पराजित करने के बाद हुमायूँ अधिक समय तक राज्य का सुख भोग न सका। उसकी अकाल मृत्यु हो गयी। उसके मरने के बाद अकवर उसके सिंहासन पर बैठा। वह आरम्भ से ही बुद्धिमान और दूरदर्शी था। अपनी माता के मुख से पिता के दुर्दिनों की घटनायें वह सुना करता था। उन्हीं दिनों में उसने अपनी माता के मुख से यह भी सुना था कि दिल्ली से भागने पर किस प्रकार उसका पिता आश्रय पाने के उद्देश्य से मारवाड़ गया और वहाँ के राजा मालदेव ने उस विपदकाल में आश्रय न देकर किस प्रकार असम्मानपूर्ण व्यवहार किया था। इस प्रकार की घटनाओं को सुनने के बाद अकवर के कोमल अन्तकरण में राजा मालदेव से वदला लेने की भावनायें एक साथ जागृत हो उठीं। उसने कुछ दिन और व्यतीत किये। अभी अकबर की अवस्था पूरे पन्द्रह वर्ष की भी न हुई थी, सम्वत् 1617 सन् 1561 ईसवी में अकबर अपनी विशाल सेना लेकर रवाना हुआ और मारवाड़ में पहुँचकर उसने वहाँ के दुर्ग को घेर लिया। वहाँ पर दुर्ग की रक्षा के लिये मारवाड़ की जो छोटी सी एक सेना थी, उसने अकवर की फौज के साथ युद्ध किया। उनकी संख्या बहुत थोड़ी थी। उनमें बहुत से राजपूत मारे गये और जो वाकी रहे वे किसी प्रकार दुर्ग से निकलकर भाग गये। अकवर की फौज ने उस दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसके बाद अकवर की सेना' नागौर की तरफ रवाना हुई और वहाँ पर भी अकवर ने अधिकार कर लिया। इन जीते हुये दोनों नगरों को अकबर ने बीकानेर के राजा रायसिंह को दे दिया और उसको अपनी तरफ से वहाँ का अधिकारी बना दिया। अकबर का प्रताप इन दिनों में बढ़ रहा था। मेवाड़ को छोड़ कर राजस्थान के सभी राज्य उससे भयभीत हो रहे थे। मारवाड़ के राजा मालदेव ने अकवर की अधीनता स्वीकार कर ली और सम्वत् 1625 सन् 1561 ईसवी में उसने दूसरे पुत्र चन्द्रसेन को अकबर के पास भेजा। अकबर उन दिनों में अजमेर में रहता था। चन्द्रसेन ने वहाँ पहुँचकर बहुमूल्य भेंटें बादशाह अकवर को दी। लेकिन अकबर को इससे सन्तोष न हुआ। मालदेव का स्वयं 389
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